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तेईसवाँ कर्म प्रकृति पद - प्रथम उद्देशक - पांचवां द्वार
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वेएइ पोग्गलं वा जाव वीससा वा पोग्गलाणं परिणामं वा तेसि वा उदएणं अंतराइयं कम्मं वेएड, एस णं गोयमा! अंतराइए कम्मे, एस णं गोयमा! जाव पंचविहे अणुभावे पण्णत्ते॥६०९॥
. ॥पण्णवणाए भगवईए तेवीसइमस्स पयस्स पढमो उद्देसओ समत्तो॥ भावार्थ - प्रश्न - हे भगवन्! जीव के द्वारा बद्ध यावत् अन्तरायकर्म का अनुभाव कितने प्रकार का कहा गया है?
उत्तर - हे गौतम! जीव के द्वारा बद्ध यावत् अन्तरायकर्म का अनुभाव पांच प्रकार का कहा गया है, वह इस प्रकार है - १. दानान्तराय २. लाभान्तराय ३. भोगान्तराय ४. उपभोगान्तराय और ५. वीर्यान्तराय। __ जो पुद्गल का या पुद्गलों का अथवा पुद्गल परिणाम का या स्वभाव से पुद्गलों के परिणाम का वेदन किया जाता है अथवा उनके उदय से अन्तरायकर्म को वेदा जाता है। हे गौतम! यह अन्तरायकर्म है। हे गौतम! अन्तराय कर्म का पांच प्रकार का अनुभाव कहा गया है।
• विवेचन - अन्तराय कर्म पांच प्रकार से भोगा जाता है - १. दानान्तराय २. लाभान्तराय ३. भोगान्तराय ४. उपभोगान्तराय और ५. वीर्यान्तराय। दान देने में अन्तराय-विघ्न रूप कर्म का होना दानान्तराय है। दानान्तराय, दानान्तराय कर्म का फल है और लाभान्तराप आदि, लाभान्तराय आदि कर्म का फलं है। विशिष्ट प्रकार के रत्नादि पुद्गल या पुद्गलों का वेदन किया जाता है। विशिष्ट रत्न आदि पुद्गलों के संबंध से उस विषय में ही दानान्तराय कर्म का उदय होता है। उन रत्नादि के लिए सेंध आदि लगाने के उपकरण आदि के संबंध से लाभान्तराय कर्म का उदय होता है। उत्तम आहार के संबंध से अथवा अमूल्य वस्तु के संबंध से लोभ के कारण भोगान्तराय कर्म का उदय होता है। इसी प्रकार उपभोगान्तराय कर्म का उदय भी समझ लेना चाहिए। लकड़ी आदि की चोट से वीर्यान्तराय कर्म का उदय होता है। अथवा आहार और औषधि आदि के परिणाम रूप पुद्गल परिणाम का घेदन किया जाता है अर्थात विशिष्ट प्रकार के आहार और औषधि के परिणाम से वीर्यान्तराय कर्म का उदय होता है। अथवा स्वभाव से विचित्र शीत आदि रूप पुद्गलों के परिणाम के वेदन से भी दानान्तराय आदि का उदय होता है। जैसे कि वस्त्र आदि दान देने की इच्छा होते हुए भी शीत आदि को देख कर दानान्तराय आदि के उदय से दान नहीं दे पाता है। यह परत: दानान्तराय आदि का उदय है। अन्तराय कर्म के पुद्गलों के उदय से अन्तराय कर्म का वेदन करना स्वतः अन्तराय कर्म का उदय है।
॥ प्रज्ञापना भगवती के तेईसवें पद का प्रथम उद्देशक समाप्त॥
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