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________________ ६६ प्रज्ञापना सूत्र णीयागोयस्स णं भंते! पुच्छा ? गोयमा ! एवं चेव, णवरं जाइविहीणया जाव इस्सरियविहीणया, जं वेएइ पुग्गलं वा पोग्गले वा पोग्गलपरिणामं वा वीससा वा पोग्गलाणं परिणामं तेसिं वा उदएणं जाव अट्ठविहे अणुभावे पण्णत्ते ॥ ३०८ ॥ - भावार्थ प्रश्न हे भगवन्! जीव के द्वारा बद्ध यावत् नीचगोत्रकर्म का अनुभाव कितने प्रकार का कहा गया है ? उत्तर - हे गौतम! उच्च गोत्र की तरह ही नीचगोत्र का अनुभाव भी आठ प्रकार का कहा गया है, किन्तु इतनी विशेषता है कि जातिविहीनता यावत् ऐश्वर्य विहीनता कहना चाहिए। जिस पुद्गल का या पुद्गलों का अथवा पुद्गल परिणाम का या विस्रसा स्वभाव से पुद्गलों के परिणाम का जो वेदन किया जाता है अथवा उन्हीं के उदय से नीच गोत्र कर्म का वेदन किया जाता है। हे गौतम! यह नीचगोत्रकर्म है और उसका आठ प्रकार का अनुभाव कहा गया है। विवेचन - नीच गोत्र कर्म का विपाक आठ प्रकार का कहा गया है - १. जाति २. कुल ३. बल ४. रूप ५. तप ६. श्रुत ७. लाभ और ८. ऐश्वर्य से हीन होना । उत्तम जाति और उत्तम कुल में उत्पन्न - होने पर भी नीच आजीविका कर्म करने से या चांडाल स्त्री का सेवन करने से वह चांडाल के समान लोक में निंदनीय हो जाता है। यह जाति हीनता, कुल हीनता है। सुख शय्या आदि का योग नहीं होने सेबल हीनता होती है। खराब वस्त्र आदि के योग से रूप हीनता होती है। पासत्था (शिथिलाचारी) आदि के संसर्ग से तपोविहीनता होती है। विकथा में तत्पर ऐसे कुसाधुओं की संगति से श्रुत विहीनता होती है। देश काल के अयोग्य खराब व्यापार से लाभ विहीनता होती है। खराब ग्रहों और खराब स्त्री के संबंध से ऐश्वर्य हीनता होती है। इस प्रकार से बहुत से पुद्गलों का वेदन किया जाता है। अथवा बैंगन आदि के आहार के परिणाम रूप पुद्गल परिणाम का वेदन किया जाता है क्योंकि बैंगन खाने से खुजली होती है और उसमें रूप विहीनता उत्पन्न होती है। मेघ के आगमन से विरुद्ध लक्षण रूप विस्वसा पुद्गल परिणाम का वेदन किया जाता है। उसके प्रभाव से नीच गोत्र कर्म वेदा जाता है अर्थात् जाति आदि की विहीनता रूप नीच गोत्र कर्म का फल जाति आदि विहीनता से वेदा जाता है। यह नीच गोत्र कर्म का परतः उदय हुआ । नीच गोत्र कर्म पुद्गलों के उदय से जाति आदि हीनता का अनुभव किया जाता है। यह नीच गोत्र कर्म का स्वतः उदय है । इस प्रकार यह नीच गोत्र कर्म है जो आठ प्रकार से वेदा जाता है। 1 अंतराइयस्स णं भंते! कम्मस्स जीवेणं पुच्छा ? गोयमा ! अंतराइयस्स णं कम्मस्स जीवेणं बद्धस्स जाव पंचविहे अणुभावे पण्णत्ते । तंजहा - दाणंतराए लाभंतराए भोगंतराए उवभोगंतराए वीरियंतराए, जं Jain Education International For Personal & Private Use Only www.jainelibrary.org
SR No.004096
Book TitlePragnapana Sutra Part 04
Original Sutra AuthorN/A
AuthorNemichand Banthiya, Parasmal Chandaliya
PublisherAkhil Bharatiya Sudharm Jain Sanskruti Rakshak Sangh
Publication Year2008
Total Pages358
LanguageHindi, Sanskrit
ClassificationBook_Devnagari & agam_pragyapana
File Size8 MB
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