SearchBrowseAboutContactDonate
Page Preview
Page 78
Loading...
Download File
Download File
Page Text
________________ तेईसवाँ कर्म प्रकृति पद - प्रथम उद्देशक - पांचवां द्वार 特种中 中中中中中中中中中中中中中中中中中中中中中中中中中中中中中中中中中中中中中中中中中中中中中中 उच्चागोयस्स णं भंते! कम्मस्स जीवेणं पुच्छा? गोयमा! उच्चागोयस्स णं कम्मस्स जीवेणं बद्धस्स जाव अट्टविहे अणुभावे पण्णत्ते। तंजहा - जाइविसिट्टया १, कुलविसिट्ठया २, बलविसिट्ठया ३, रूवविसिट्ठया ४, तवविसिट्ठया ५, सुयविसिठ्ठया ६, लाभविसिट्ठया ७, इस्सरियविसिट्ठया ८, जं वेएइ पोग्गलं वा पोग्गले वा पोग्गलपरिणामं वा वीससा वा पोग्गलाणं परिणाम तेसिं वा उदएणं जाव अट्ठविहे अणुभावे पण्णत्ते। भावार्थ - प्रश्न - हे भगवन्! जीव के द्वारा बद्ध यावत् उच्च गोत्र कर्म का कितने प्रकार का अनुभाव कहा गया है? उत्तर - हे गौतम! जीव के द्वारा बद्ध यावत् उच्च गोत्र कर्म का आठ प्रकार का अनुभाव कहा गया है। वह इस प्रकार है - १. जाति विशिष्टता २. कुल विशिष्टता ३. बल विशिष्टता ४. रूप विशिष्टता ५. तप विशिष्टता ६. श्रुत विशिष्टता ७. लाभ विशिष्टता और ८. ऐश्वर्य विशिष्टता। जो पुद्गल अथवा पुद्गलों का, पुद्गल परिणाम का या विस्रसा - स्वभाव से पुद्गलों के परिणाम का वेदन किया जाता है अथवा उनके उदय से उच्च गोत्र कर्म को वेदा जाता है यावत् यह उच्च गोत्र कर्म है, जिसका अनुभाव आठ प्रकार का कहा गया है। ... विवेचन - उच्च गोत्र कर्म का विपाक आठ प्रकार का कहा गया है - १. जाति २. कुल ३. बल ४. रूप ५. तप ६. श्रुत ७. लाभ ८. ऐश्वर्य का विशिष्ट होना। जैसे - राजा आदि विशिष्ट पुरुष के संयोग से नीच जाति में जन्मा हुआ भी जाति सम्पन्न के समान लोकप्रिय हो जाता है। यह जाति विशिष्टता हुई। मल्ल आदि के संयोग से बल विशिष्टता होना या लकड़ी आदि घुमाने से शारीरिक बल में विशिष्टता होती है। विशेष प्रकार के उत्तम वस्त्रों एवं अलंकारों से रूप विशिष्टता होती है। पर्वत के शिखर आदि पर चढ़ कर आतापना लेने वाले को तप विशिष्टता होती है। मनोहर एकान्त पृथ्वी प्रदेश में स्वाध्याय करने वाले में श्रुत की विशिष्टता होती है। बहुमूल्य उत्तम लक्षण युक्त रत्न आदि (अपनी अपनी जाति में सर्वश्रेष्ठ पदार्थों को रत्न कहते हैं जैसे नर रत्न, स्त्री रत्न, अश्व रत्न, हस्ती रत्न आदि। यहाँ पर रत्न में एकेन्द्रिय एवं पंचेन्द्रिय आदि यथायोग्य समझ लेना चाहिए।) के योग से लाभ विशिष्टता होती है। धन, स्वर्ण आदि के योग से ऐश्वर्य विशिष्टता होती है। इस प्रकार के पुद्गल या पुद्गलों को वेदा जाता है। दिव्य फल (अमर फल) आदि के आहार के परिणाम रूप पुद्गल परिणाम का वेदन किया जाता है। अथवा अकस्मात मेघ आदि के आगमन रूप विस्त्रसा-स्वभाव से पुद्गलों के परिणाम का अनुभव किया जाता है। उसके प्रभाव से उच्च गोत्र कर्म का फल जाति विशिष्टता आदि का वेदन किया जाता है। यह परत: उच्च गोत्र कर्म का उदय है। उच्च गोत्र कर्म के पुद्गलों के उदय से जाति विशिष्टता आदि होना स्वतः उच्च गोत्र का उदय है। Jain Education International For Personal & Private Use Only www.jainelibrary.org
SR No.004096
Book TitlePragnapana Sutra Part 04
Original Sutra AuthorN/A
AuthorNemichand Banthiya, Parasmal Chandaliya
PublisherAkhil Bharatiya Sudharm Jain Sanskruti Rakshak Sangh
Publication Year2008
Total Pages358
LanguageHindi, Sanskrit
ClassificationBook_Devnagari & agam_pragyapana
File Size8 MB
Copyright © Jain Education International. All rights reserved. | Privacy Policy