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________________ तेईसवाँ कर्म प्रकृति पद प्रथम उद्देशक पांचवां द्वार Jain Education International - पुरिसक्कारपरक्कमे १०, इट्ठस्सरया १९, कंतस्सरया १२, पियस्सरया १३, मणुण्णस्सरया १४, जं वेएइ पोग्गलं वा पोग्गले वा पोग्गलपरिणामं वा वीससा वा पोग्गलाणं परिणामं तेसिं वा उदएणं सुहणामं कम्मं वेएइ, एस णं गोयमा ! सुहणामकम्मे, एस णं गोयमा ! सुहणामस्स कम्प्रेस्स जाव चउद्दसविहे अणुभावे पण्णत्ते । भावार्थ - प्रश्न हे भगवन्! जीव के द्वारा बद्ध यावत् शुभ नामकर्म का कितने प्रकार का अनुभाव कहा गया है ? उत्तर - हे गौतम! जीव के द्वारा बद्ध यावत् शुभ नामकर्म का चौदह प्रकार का अनुभाव कहा गया है । यथा १. इष्ट शब्द २. इष्टं रूप ३. इष्ट गन्ध ४. इष्ट रस ५. इष्ट स्पर्श ६. इष्ट गति ७. इष्ट स्थिति ८. इष्ट लावण्य ९. इष्ट यशोकीर्ति १०. इष्ट उत्थान कर्म बल वीर्य पुरुषकार पराक्रम ११. इष्ट स्वर १२. कान्त स्वर १३. प्रिय स्वर और १४. मनोज्ञ स्वर । जिस पुद्गल अथवा पुद्गलों का या पुद्गल परिणाम का अथवा विस्रसा - स्वभाव से पुद्गलों के परिणाम का वेदन किया जाता है अथवा उनके उदय से शुभनामकर्म को वेदा जाता है, हे गौतम! यह शुभनामकर्म है तथा हे गौतम! यह शुभनामकर्म का यावत् चौदह प्रकार अनुभाव कहा गया है। विवेचन - शुभ नाम कर्म का चौदह प्रकार का विपाक कहा गया है जो इस प्रकार है १. इष्ट शब्द - अपने ही मनचाहे शब्द इष्ट शब्द है । इसी प्रकार २. इष्ट रूप ३. इष्ट गंध ४. इष्ट रस और ५. इष्ट स्पर्श समझना चाहिए ६. इष्ट गति मदोन्मत्त हस्ति आदि जैसी उत्तम चाल ७. इष्टस्थिति - सहज रूप में बैठने की स्थिति ८. इष्ट लावण्य कान्ति विशेष या शारीरिक सौन्दर्य ९. इष्ट यश: कीर्ति - पराक्रम से होने वाली ख्याति को यश एवं दान पुण्य आदि से होने वाली ख्याति को कीर्ति कहते हैं १०. इष्ट उत्थान कर्म बल वीर्य पुरुषकार पराक्रम - उत्थान- शरीर की चेष्टा विशेष, कर्म-भ्रमण आदि, बल शारीरिक सामर्थ्य, वीर्य - आत्मा की शक्ति, पुरुषकार - आत्मजन्य स्वाभिमान विशेष पराक्रमअभिमान का कार्य रूप में परिणत होना ११ इष्ट स्वर- वीणा आदि के समान वल्लभ स्वर १२. कान्त स्वर - मनोहर, सामान्य रूप से इच्छित स्वर १३. प्रिय स्वर बार-बार अभिलाषा करने योग्य स्वर १४. मनोज्ञ स्वर भाव-प्रेम नहीं होने पर भी अपने प्रति प्रीति उत्पन्न करने वाला मनोज्ञ कहलाता है। और इस प्रकार का स्वर मनोज्ञ स्वर कहलाता है । यहाँ पर इष्ट शब्द आदि स्वयं के ही लेने चाहिए क्योंकि नाम कर्म का यहाँ विपाक बताया है। कोई आचार्य - वीणा आदि वादिंत्रों से उत्पन्न शब्दों को इष्ट शब्द कहते हैं । वह उचित नहीं लगता है। इष्ट रस में नाम कर्म के उदय से स्वयं के वचनों में ऐसा रस होवे किं श्रोता को वचन क्षीर मधु के समान मधुर लगता है जैसे क्षीरासव, मधुरासव आदि लब्धि वाले । - ६३ For Personal & Private Use Only www.jainelibrary.org
SR No.004096
Book TitlePragnapana Sutra Part 04
Original Sutra AuthorN/A
AuthorNemichand Banthiya, Parasmal Chandaliya
PublisherAkhil Bharatiya Sudharm Jain Sanskruti Rakshak Sangh
Publication Year2008
Total Pages358
LanguageHindi, Sanskrit
ClassificationBook_Devnagari & agam_pragyapana
File Size8 MB
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