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प्रज्ञापना सूत्र
उदय है। जो सम्यक्त्व वेदनीय आदि कर्म पुद्गलों के उदय से प्रशम आदि रूप फल का वेदन किया जाता है, वह स्वतः मोहनीय कर्म उदय है।
आउयस्स णं भंते! कम्मस्स जीवेणं तहेव पुच्छा ?
गोयमा ! आउयस्स णं कम्मस्स जीवेणं बद्धस्स जाव चडव्विहे अणुभावे पण्णत्ते । तंजहा - णेरड्याउए, तिरियाउए, मणुयाउए, देवाउए, जं वेएइ पोग्गलं वा पोग्गले वा पोग्गल परिणामं वा वीससा वा पोग्गलाणं परिणामं तेसिं वा उदएणं आउयं कम्म वेएइ, एस णं गोयमा! आउए कम्मे, एस णं गोयमा ! आउयकम्मस्स जाव चड़व्विहे अणुभावे पण्णत्ते ॥ ६०६ ॥
भावार्थ - प्रश्न - हे भगवन् ! जीव के द्वारा बद्ध यावत् आयुष्य कर्म का कितने प्रकार का अनुभाव कहा गया है ?
उत्तर - हे गौतम! जीव के द्वारा बद्ध यावत् आयुष्यकर्म का चार प्रकार का अनुभाव कहा गया है । वह इस प्रकार है १. नैरयिकायु २. तिर्यंचायु ३. मनुष्यायु और ४. देवायु ।
जिस पुद्गल अथवा पुद्गलों का, पुद्गल परिणाम का अथवा स्वभाव से पुद्गलों के परिणाम का या उनके उदय से आयुष्य कर्म का वेदन किया जाता है, हे गौतम! यह आयुष्यकर्म है। हे गौतम! यह आयुष्य कर्म का यावत् चार प्रकार का अनुभाव कहा गया है।
विवेचन - आयुष्य कर्म का नैरयिकायुष्य आदि चार प्रकार का कहा गया है। आयुष्य कर्म का अपवर्तन करवाने में समर्थ जिस शस्त्र आदि पुद्गल का वेदन किया जाता है या बहुत से शस्त्र आदि रूप पुद्गलों को वेदा जाता है। विष मिश्रित अन्न आदि के परिणाम रूप पुद्गल परिणाम का वेदन किया जाता है अथवा विस्त्रसा - स्वभाव से आयुष्य का अपवर्तन करने में समर्थ शीत आदि रूप पुद्गल परिणाम का वेदन किया जाता है जिससे वर्तमान भव के आयुष्य कर्म का अपवर्तन होने से नैरयिक आदि आयुष्य कर्म को वेदा जाता है। इस प्रकार परतः आयुष्य कर्म उदय कहा गया है। नैरयिक आयु कर्म आदि के पुद्गलों के उदय से जो नैरयिक आयु आदि कर्म का वेदन किया जाता है वह स्वतः आयु कर्म का उदय है।
सुहणामस्स णं भंते! कम्मस्स जीवेणं पुच्छा ?
गोयमा! सुहणामस्स णं कम्मस्स जीवे णं चउद्दसंविहे अणुभावे पण्णत्ते । तंजहाइट्ठा सद्दा १, इट्ठा रूवा २, इट्ठा गंधा ३, इट्ठा रसा ४, इट्ठा फासा ५, इट्ठा गई ६, इट्ठा ठिई ७, इट्ठे लावणे ८, इट्ठा जसोकित्ती ९, इट्ठे उट्ठाणकम्मबलवीरिय
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