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________________ तेईसवाँ कर्म प्रकृति पद - प्रथम उद्देशक - पांचवां द्वार भावार्थ - प्रश्न - हे भगवन् ! क्या बहुत जीव ज्ञानावरणीयकर्म का वेदन-अनुभव करते हैं ? उत्तर - हे गौतम! पूर्ववत् सभी कथन जानना चाहिए। एवं जाव वेमाणिया। भावार्थ - इसी प्रकार बहुत से नैरयिकों से लेकर यावत् वैमानिकों तक कहना चाहिए। एवं जहा णाणावरणिज्जं तहा दंसणावरणिज मोहणिज्जं अंतराइयं च, भावार्थ - जिस प्रकार ज्ञानावरणीय के सम्बन्ध में कथन किया गया है, उसी प्रकार दर्शनावरणीय मोहनीय और अन्तरायकर्म के वेदन के विषय में समझना चाहिए। वेयणिज्जाउयणामगोयाइं एवं चेव, णवरं मणसे विणियमा वेएड, भावार्थ - वेदनीय, आयु, नाम और गोत्रकर्म के जीव द्वारा वेदन के विषय में भी इसी प्रकार समझना चाहिए, किन्तु विशेषता यह है कि मनुष्य इन चारों कर्मों का वेदन नियम से करता है। एवं एए एगत्तपोहत्तिया सोलस दंडगा॥६०१॥ . भावार्थ - इस प्रकार एक वचन और बहुवचन की अपेक्षा से ये सोलह दण्डक होते हैं। विवेचन - ज्ञानावरणीय कर्म की तरह दर्शनावरणीय, मोहनीय और अन्तराय कर्म वेदने का कह देना चाहिए। वेदनीय, आयु, नाम और गोत्र ये चार कर्म जीव वेदता भी है और नहीं भी वेदता है। सिद्धात्माओं ने इन चारों अघाती कर्मों का क्षय कर दिया है इसलिए ये इन कर्मों को नहीं वेदते। शेष सभी जीव नियम पूर्वक इन चारों कर्मों को वेदते हैं। - पांचवां द्वार ... किस कर्म प्रकृति का कितने प्रकार का विपाक है? णाणावरणिजस्स णं भंते! कम्मस्स जीवेणं बद्धस्स पुट्ठस्स बद्धफासपुट्ठस्स संचियस्स चियस्स उवचियस्स आवागपत्तस्स विवागपत्तस्स फलपत्तस्स उदयपत्तस्स जीवेणं कडस्स जीवेणं णिव्वत्तियस्स जीवेणं परिणामियस्स सयं वा उदिण्णस्स परेण वा उदीरियस्स तदुभएण वा उदीरिजमाणस्स गई पप्प ठिइं पप्प भवं पप्प पोग्गलपरिणाम पप्प कइविहे अणुभावे पण्णत्ते? । गोयमा! णाणावरणिजस्स णं कम्मस्स जीवेणं बद्धस्स जाव पोग्गलपरिणाम पप्प दसविहे अणुभावे पण्णत्ते। तंजहा - सोयावरणे १, सोयविण्णाणावरणे २, णेत्तावरणे ३, णेत्तविण्णाणावरणे ४, घाणावरणे ५, घाणविण्णाणावरणे ६, रसावरणे ७, रसविण्णाणावरणे ८, फासावरणे ९, फासविण्णाणावरणे १०, जं वेएइ पोग्गलं Jain Education International For Personal & Private Use Only www.jainelibrary.org
SR No.004096
Book TitlePragnapana Sutra Part 04
Original Sutra AuthorN/A
AuthorNemichand Banthiya, Parasmal Chandaliya
PublisherAkhil Bharatiya Sudharm Jain Sanskruti Rakshak Sangh
Publication Year2008
Total Pages358
LanguageHindi, Sanskrit
ClassificationBook_Devnagari & agam_pragyapana
File Size8 MB
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