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________________ ५२ वा पोग्गले वा पोग्गलपरिणामं वा वीससा वा पोग्गलाणं परिणामं, तेसिं वा उदएणं जाणिव्वं ण जाणइ, जाणिउकामे वि ण जाणइ, जाणित्ता वि ण जाणड़, उच्छण्णणाणी यावि भवइ णाणावरणिज्जस्स कम्मस्स उदएणं, एस णं गोयमा ! णाणावरणिज्ने कम्मे, एस णं गोयमा ! णाणावरणिज्जस्स कम्मस्स जीवेणं बद्धस्स जाव पोग्गलपरिणामं पप्प दसविहे अणुभावे पण्णत्ते ॥ ६०२ ॥ प्रज्ञापना सूत्र कठिन शब्दार्थ - बद्धस्स बद्ध-बांधे हुए अर्थात् कर्म रूप में परिणत किये हुए, पुट्ठस्स स्पृष्ट- आत्म प्रदेश के साथ संबंध को प्राप्त, बद्धफासपुटुस्स - बद्धस्पर्शस्पृष्टस्य पुनः गाढ रूप से बद्ध और अत्यंत स्पर्श से स्पृष्ट अर्थात् आवेष्टन परिवेष्टन रूप से अत्यंत गाढ बंधे हुए, संचियंस्स - संचितस्य-अबाधाकाल को छोड़कर बाद के काल में वेदन के योग्य रूप में निषेक-रचना को प्राप्त हुए, चियस्स - चितस्य- जो चय को प्राप्त हुआ है - अर्थात् उत्तरोत्तर स्थिति में प्रदेश की हानि और रस की वृद्धि से अवस्थित, उवचियस्स उपचितस्य समान जाति की अन्य प्रकृतियों के दलिकों में संक्रमण करके उपचय को प्राप्त, आवागपत्तस्स आपाक प्राप्तस्य कुछ विपाकावस्था के अभिमुख बने हुए, विवागपत्तस्स - विपाकप्राप्तस्य - विशिष्ट विपाकावस्था को प्राप्त, फलपत्तस्स - फलप्राप्तस्यफल देने को अभिमुख बने हुए, उदयपत्तस्स उदयप्राप्त- जो सामग्रीवशात् उदय को प्राप्त है, (कर्म बन्धन से बद्ध जीव के द्वारा उपार्जित ।) - Jain Education International - - भावार्थ - प्रश्न - हे भगवन्! जीव के द्वारा बद्ध, स्पृष्ट, बद्ध और स्पृष्ट किये हुए, संचित, चित और उपचित किये हुए, कुछ विपाक को प्राप्त, विशिष्ट विपाक को प्राप्त, फल को प्राप्त, उदय को प्राप्त, जीव के द्वारा कृत, जीव के द्वारा निर्वर्तित- सामान्य रूप से किये हुए जीव के द्वारा परिणामित, स्वयं के द्वारा उदीर्ण उदय को प्राप्त, दूसरे के द्वारा उदीरित या स्व और पर के निमित्त से उदीरणा को प्राप्त, ज्ञानावरणीय कर्म का, गति को प्राप्त करके, स्थिति को प्राप्त करके, भव को, पुद्गल को तथा पुद्गल परिणाम को प्राप्त करके कितने प्रकार का अनुभाव (विपाक) फल कहा गया है ? उत्तर - हे गौतम! जीव के द्वारा बद्ध यावत् पुद्गल परिणाम को प्राप्त ज्ञानावरणीय कर्म का दस प्रकार का अनुभाव कहा गया है जो इस प्रकार है- १. श्रोत्रावरण २. श्रोत्रविज्ञानावरण ३. नेत्रावरण ४. नेत्रविज्ञानावरण ५. घ्राणावरण ६. घ्राणविज्ञानावरण ७. रसावरण ८. रसविज्ञानावरण ९. स्पर्शावरण और १०. स्पर्शविज्ञानावरण। जिस पुद्गल को अथवा जिन पुद्गलों को या पुद्गल - परिणाम को अथवा विस्त्रसा-स्वभाव से पुद्गलों के परिणाम को वेदता है, उनके उदय से जानने योग्य को नहीं जानता, जानने की इच्छा वाला होकर भी नहीं जानता, जानकर भी नहीं जानता अथवा ज्ञानावरणीय कर्म के उदय से आच्छादित ज्ञान For Personal & Private Use Only www.jainelibrary.org
SR No.004096
Book TitlePragnapana Sutra Part 04
Original Sutra AuthorN/A
AuthorNemichand Banthiya, Parasmal Chandaliya
PublisherAkhil Bharatiya Sudharm Jain Sanskruti Rakshak Sangh
Publication Year2008
Total Pages358
LanguageHindi, Sanskrit
ClassificationBook_Devnagari & agam_pragyapana
File Size8 MB
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