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________________ तेईसवाँ कर्म प्रकृति पद - प्रथम उद्देशक - तृतीय द्वार ४९ कारण यह नियम बताया गया है। वैसे सम्यग्दृष्टि भी आठ कर्म बांधता है उसके मिथ्यात्व का उदय नहीं होता है। सूक्ष्म संपराय आदि गुणस्थान वाले आठ कर्म भी नहीं बांधते हैं। तात्पर्य यह है कि पूर्व कर्म के परिणाम से उत्तर कर्म उत्पन्न होता है जैसे बीज से अंकुर और अंकुर से पत्र आदि। कहा है - जीव परिणाम हेऊ, कम्मत्ता पोग्गला परिणमंति। पुग्गल कम्म निमित्तं, जीवो वि तहेव परिणमइ॥ . अर्थात् - जीव के परिणाम से पुद्गल कर्म रूप से परिणत होते हैं और कर्म पुद्गलों के कारण जीव का वैसा परिणाम होता है। . तृतीय द्वार कर्म बंध के कारण जीवे णं भंते! णाणावरणिजं कम्मं कइहिं ठाणेहिं बंधइ? . गोयमा! दोहिं ठाणेहि, तंजहा - रागेण य दोसेण य। रागे दुविहे पण्णत्ते। तंजहा-माया य लोभे या दोसे दविहे पण्णत्ते। तंजहा - कोहे य माणे य, इच्चेएहिं चउहिं ठाणेहिं विरओवग्गहिएहिं एवं खलु जीवे णाणावरणिज कम्मं बंधइ, एवं णेरइए जाव वेमाणिए। कठिन शब्दार्थ - विरओवग्गहिएहि - वीर्योपगृहितैः-वीर्य से उपगृहित-उपस्थित। वीर्यान्तराय कर्म के क्षयोपशम से कृत योगों के उपग्रह से। वीर्य हेतु (कारण) है और योग कार्य है। यहाँ पर करण वीर्य की अपेक्षा कथन है। चौदहवें गुणस्थान में लब्धि वीर्य होने से योगों की प्रवृत्ति नहीं होती है। - भावार्थ - प्रश्न - हे भगवन्! जीव कितने स्थानों से ज्ञानावरणीय कर्म बांधता है? उत्तर - हे गौतम! जीव दो स्थानों से ज्ञानावरणीय कर्म बांधता है यथा - राग से और द्वेष से। राग दो प्रकार का कहा है, यथा - माया और लोभ। द्वेष भी दो प्रकार का कहा गया है, यथा - क्रोध और मान। इस प्रकार जीव वीर्य से उपार्जित चार स्थानों से जीव ज्ञानावरणीय कर्म बांधता है। नैरयिक से लेकर वैमानिक पर्यन्त इसी प्रकार कहना चाहिये। विवेचन - प्रस्तुत सूत्र में जीव किन-किन कारणों से कर्म प्रकृतियाँ बांधता है ? इसका निरूपण किया गया है। जीव राग और द्वेष इन दो स्थानों से ज्ञानावरणीय आदि कर्म प्रकृतियाँ बांधता है। माया और लोभ राग रूप हैं तथा क्रोध और मान द्वेष रूप हैं। इस प्रकार वीर्य (शक्ति) से उपार्जित चार कारणों से जीव आठ कर्म प्रकृतियाँ बांधता है। आठ कर्म बांधने के ये सामान्य कारण यहाँ बताये गये हैं। भगवती सूत्र शतक ८ उद्देशक ९ में आठ कर्मों के बन्ध के अलग-अलग कारण बताये हैं। जिज्ञासुओं को वहां देखना चाहिए। Jain Education International For Personal & Private Use Only www.jainelibrary.org
SR No.004096
Book TitlePragnapana Sutra Part 04
Original Sutra AuthorN/A
AuthorNemichand Banthiya, Parasmal Chandaliya
PublisherAkhil Bharatiya Sudharm Jain Sanskruti Rakshak Sangh
Publication Year2008
Total Pages358
LanguageHindi, Sanskrit
ClassificationBook_Devnagari & agam_pragyapana
File Size8 MB
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