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प्रज्ञापना सूत्र
इनके आवरण से जितनी ज्ञानादि की मन्दता होगी उतनी ही दर्शनमोहनीय के उदय प्राप्त होने से मूढता अधिक होगी। फिर उस मूढता से मिथ्यात्व को उदय प्राप्त करता है-अर्थात् मिथ्यात्व को गाढ़ करता है। इस प्रकार के मिथ्यात्व के उदय प्राप्त होने से जीव आठ कर्म प्रकृतियों को बान्धता है। अनादि काल से (बहुलता से) जीवों के कर्म बन्धन का इस प्रकार का क्रम चल रहा है। इसलिए उसका संसार परिभ्रमण चालू ही है। इसमें सबसे पहली गलती तो हमारी गफलत (असावधानी) है। अर्थात् हमने ज्ञानावरणीय, दर्शनावरणीय के आवरण को दूर नहीं किया, इसलिए दर्शन मोह के शक्तिशाली डाकू तो आयेंगे ही। असावधानी में ही डाकूओं का जोर बढ़ता है। जैसे मकान का द्वार खुला होवे तो चोर आयेंगे ही। दर्शन मोहनीय के तीनों भेदों में भी मिथ्यात्व मोहनीय मुख्य होने से वह ही आयेगा। मिथ्यात्व के क्षयोपशम से उसको अन्य धर्मों पर दृढ़ श्रद्धा होती है। जैसे हालाहालीन कुंभकारीन को आजीविकमत पर दृढ़ श्रद्धा (अद्विमिंजपेमाणुरागरत्ते) थी मिथ्यात्व होने से ज्ञानावरणीय दर्शनावरणीय के क्षयोपशम से ज्ञान बढ़ने पर भी वह पीलिये के रोगी की तरह होता है। आँख के औजार की शक्ति तेज होने पर भी विपरीत देखता है। अर्थात् मिथ्यात्व के उदय प्राप्त में भी ज्ञानावरणीय आदि के क्षयोपशम से ज्ञान आदि बढ़ सकता है।
कहं णं भंते! णेरइए अट्ठ कम्मपगडीओ बंधइ? गोयमा! एवं चेव, एवं जाव वेमाणिए। भावार्थ - प्रश्न - हे भगवन् ! नैरयिक आठ कर्मप्रकृतियों को किस प्रकार बांधता है ?
उत्तर - हे गौतम! इसी प्रकार नैरयिक आठ कर्म प्रकृतियों को बांधता है। इसी प्रकार यावत् वैमानिक पर्यन्त समझना चाहिए।
कहण्णं भंते! जीवा अट्ठ कम्मपगडीओ बंधति? गोयमा! एवं चेव, एवं जाव वेमाणिया॥५९९॥ भावार्थ - प्रश्न - हे भगवन्! बहुत से जीव आठ कर्म प्रकृतियाँ किस प्रकार बांधते हैं? उत्तर- हे गौतम! पूर्ववत् जानना चाहिये। इसी प्रकार यावत् बहुत-से वैमानिकों तक समझना चाहिए।
विवेचन - प्रस्तुत सूत्र में जीव किस प्रकार इन कर्म प्रकृतियों को बांधता है इसका निरूपण किया गया है। ज्ञानावरणीय कर्म के उदय से दर्शनावरणीय कर्म का उदय होता है। यहाँ पर दर्शनमोहनीय में मिथ्यात्व मोहनीय का ही ग्रहण किया गया है। क्योंकि अनादि मिथ्यात्वी के शेष दो भेद नहीं होते हैं। दर्शन मोहनीय का ही अविशुद्ध रूप मिथ्यात्व मोहनीय कहा जाता है। दर्शनावरणीय कर्म के उदय से दर्शन मोहनीय कर्म का उदय होता है। दर्शन मोहनीय कर्म के उदय से मिथ्यात्व का उदय होता है और मिथ्यात्व के उदय से जीव आठ कर्म प्रकृतियाँ बांधता है। बहुधा ऐसा होता है इस
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