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________________ तेईसवाँ कर्म प्रकृति पद - प्रथम उद्देशक - द्वितीय द्वार इष्ट और अनिष्ट विषयों के संबंध में संसारी प्राणी को राग द्वेष अवश्य होता है और राग-द्वेष मोहनीय के निमित्तक है। इसीलिए वेदनीय के बाद मोहनीय कर्म लिया गया है। मोहनीय कर्म से मूढ बने प्राणी अत्यंत आरंभ और परिग्रह में आसक्त होकर नरक आदि का आयुष्य बांधते हैं इसलिए मोहनीय कर्म के बाद आयुष्य कर्म का ग्रहण किया गया है। नरक आदि आयुष्य के उदय में नरक गति आदि नाम कर्म का अवश्य उदय होता है इसलिए आयुष्य के बाद नाम कर्म लिया गया है। नाम कर्म के उदय से उच्च या नीच गोत्र कर्म का अवश्य विपाकोदय होता है अत: नाम कर्म के बाद गोत्र कर्म का कथन किया गया है। गोत्र कर्म के उदय में उच्च गोत्र में उत्पन्न हुए प्राणी को प्रायः दानान्तराय, लाभान्तराय आदि का क्षयोपशम होता है तो राजा आदि प्रमुख लोगों में देखा जाता है तथा नीच कुल में उत्पन्न हुए प्राणी को दानान्तराय लाभान्तराय आदि का उदय होता है क्योंकि हीन जातियों में प्रायः ऐसा देखा जाता है इसलिए गोत्र कर्म के बाद अन्तराय कर्म का ग्रहण किया गया है। ___इस प्रकार प्रथम द्वार का कथन करने के बाद अब सूत्रकार दूसरे द्वार-कर्म बन्ध के प्रकार का निरूपक द्वार में जीव इन आठ कर्म प्रकृतियों को किस प्रकार बांधता है इसका प्रतिपादन करते हैं - द्वितीय द्वार कर्म बंध के प्रकार कहं णं भंते! जीवे अट्ठ कम्मपगडीओ बंधइ? गोयमा! णाणावरणिजस्स कम्मस्स उदएणं दरिसणावरणिजं कम्मं णियच्छइ, दसणावरणिजस्स कम्मस्स उदएणं दंसणमोहणिजे कम्मं णियच्छइ, दंसणमोहणिजस्स कम्मस्स उदएणं मिच्छत्तं णियच्छइ, मिच्छत्तेणं उदिएणं गोयमा! एवं खलु जीवो अट्ठ कम्मपगडीओ बंधइ। कठिन शब्दार्थ - णियच्छइ - निर्गच्छति-अवश्य प्राप्त होता है। भावार्थ - प्रश्न - हे भगवन् ! जीव आठ कर्म प्रकृतियों को किस प्रकार बांधता है? उत्तर - हे गौतम! ज्ञानावरणीय कर्म के उदय से जीव दर्शनावरणीय कर्म को निश्चय ही प्राप्त करता है, दर्शनावरणीय कर्म के उदय से जीव दर्शनमोहनीय कर्म को प्राप्त करता है। दर्शनमोहनीय कर्म के उदय से मिथ्यात्व को निश्चय ही प्राप्त करता है और हे गौतम! इस प्रकार मिथ्यात्व के उदय होने पर जीव निश्चय ही आठ कर्म प्रकृतियों को बांधता है। ...विवेचन - जीव का मूलभूत गुण ज्ञान-दर्शनोपयोग है। इनका जितना जितना तीव्र (गाढ़) आवरण होगा उतना उतना दर्शनावरणीय का भी तीव्र आवरण होगा (क्योंकि दोनों सहभावी होते हैं) Jain Education International For Personal & Private Use Only www.jainelibrary.org
SR No.004096
Book TitlePragnapana Sutra Part 04
Original Sutra AuthorN/A
AuthorNemichand Banthiya, Parasmal Chandaliya
PublisherAkhil Bharatiya Sudharm Jain Sanskruti Rakshak Sangh
Publication Year2008
Total Pages358
LanguageHindi, Sanskrit
ClassificationBook_Devnagari & agam_pragyapana
File Size8 MB
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