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________________ ४६ प्रज्ञापना सूत्र ७. गोत्र - जिस कर्म के उदय से जीव उच्च, नीच कुलों में जन्म लेकर उच्च नीच कहलाता है उसे गोत्र कर्म कहते हैं। यह कर्म कुम्भकार के समान हैं। जैसे कुम्भकार अनेक तरह के घड़े बनाता है। उनमें कुछ घड़े कलश रूप होते हैं और अक्षत चन्दन आदि से पूजने योग्य होते हैं तथा कुछ घड़े शराब आदि घृणित पदार्थों के रखने योग्य होने से घृणास्पद होते हैं । ८. अन्तराय - जिस कर्म के उदय से जीव को दान, लाभ, भोग, उपभोग और वीर्य-पराक्रम में अन्तराय यानी विघ्न बाधा उपस्थित होती है, उसे अन्तराय कर्म कहते हैं । यह कर्म भण्डारी के समान है । जैसे राजा किसी याचक को दान देना चाहता है और दान देने के लिए आज्ञा भी देता है किन्तु भण्डारी उसमें बाधा उत्पन्न कर राजा की इच्छा और आज्ञा को सफल नहीं होने देता। इसी प्रकार अन्तराय कर्म भी जीव के दान, लाभ, भोग, उपभोग और वीर्य में विघ्न रूप होता है और जीव को दान, लाभ, भोग, उपभोग और वीर्य से वंचित कर देता है। Jain Education International क्रम का कारण ज्ञानावरणीय आदि कर्म का उपरोक्तानुसार क्रम रखने का कारण इस प्रकार समझना चाहिये - ज्ञान और दर्शन जीव का स्वरूप है क्योंकि इनके अभाव जीवत्व संभव नहीं है । ज्ञान और दर्शन में भी ज्ञान प्रधान है क्योंकि ज्ञान से ही सभी शास्त्र आदि के विचार की परम्परा चलती है और सभी लब्धियाँ भी साकार उपयोग वाले जीव को ही उत्पन्न होती है - "सव्वाओ लद्धीओ सागारोवओवउत्तस्स, न अणागारोवओवउत्तस्स" - सर्व लब्धियाँ साकार उपयोग वाले को प्राप्त होती है किन्तु अनाकार उपयोग वाले को प्राप्त नहीं होती ऐसा शास्त्र वचन प्रमाण रूप है। इसके अलावा जिस समय जीव सर्व कर्म से विमुक्त होता है उस समय ज्ञानोपयोग वाला होता है परन्तु दर्शनोपयोग वाला नहीं होता क्योंकि उसे दूसरे समय में दर्शनोपयोग होता है इसलिए ज्ञान प्रधान है। ज्ञान का आवरण करने वाला ज्ञानावरणीय कर्म सबसे पहले कहा है । इसके बाद दर्शनावरणीय कर्म कहा है क्योंकि ज्ञानोपयोग से गिर कर जीव दर्शनोपयोग में आता है। ज्ञानावरणीय और दर्शनावरणीय अपना विपाक दिखाते हुए यथायोग्य रूप से सुख दुःख रूप वेदनीय कर्म के विपाक का निमित्त होते हैं। जैसे अत्यंत उपचित बने हुए ज्ञानावरणीय कर्म के विपाक का अनुभव करते, सूक्ष्म और सूक्ष्मतर वस्तु का विचार करने में अपने को असमर्थ मानते हुए बहुत से लोग खेदित होते हैं और ज्ञानावरणीय कर्म के क्षयोपशम से उत्पन्न हुई बुद्धि की पटुता से युक्त होकर सूक्ष्म और सूक्ष्मतर वस्तुओं को अपनी प्रज्ञा से जानते हुए बहुत से मनुष्य अपने को श्रेष्ठ मान कर सुख का अनुभव करते हैं। अति गाढ दर्शनावरण के विपाकोदय से बहुत से जीव जन्मान्धता आदि दुःख का अनुभव करते हैं तो दर्शनावरणीय कर्म की क्षयोपशम जन्य पटुता युक्त प्राणी स्पष्ट चक्षु आदि इन्द्रियों सहित यथार्थ रूप से वस्तुओं को देखते हुए प्रमोद का अनुभव करता है इसलिए दर्शनावरणीय कर्म के बाद वेदनीय कर्म का ग्रहण किया गया है। वेदनीय कर्म इष्ट और अनिष्ट विषयों के संबंध से सुख दुःख उत्पन्न करता है 1 . - *********poodcock For Personal & Private Use Only www.jainelibrary.org
SR No.004096
Book TitlePragnapana Sutra Part 04
Original Sutra AuthorN/A
AuthorNemichand Banthiya, Parasmal Chandaliya
PublisherAkhil Bharatiya Sudharm Jain Sanskruti Rakshak Sangh
Publication Year2008
Total Pages358
LanguageHindi, Sanskrit
ClassificationBook_Devnagari & agam_pragyapana
File Size8 MB
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