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तेईसवाँ कर्म प्रकृति पद - प्रथम उद्देशक - प्रथम द्वार
उत्तर - हे गौतम! इसी प्रकार पूर्ववत् आठ कर्म प्रकृतियाँ कही गई हैं। नैरयिकों के ही समान यावत् वैमानिक तक आठ कर्मप्रकृतियाँ समझनी चाहिए।
विवेचन - ज्ञानावरणीय, दर्शनावरणीय, वेदनीय, मोहनीय, आयु, नाम, गोत्र और अन्तराय, ये आठ कर्म प्रकृतियाँ हैं। सभी संसारी जीवों में ये आठों कर्म प्रकृतियाँ पाई जाती है। इनका स्वरूप इस प्रकार है -
१. ज्ञानावरणीय - पदार्थों के विशेष धर्म को जानना ज्ञान है। जिस कर्म द्वारा ज्ञान का आवरण हो, उसे ज्ञानावरणीय कर्म कहते हैं। जैसे घाणी के बैल की आँखों पर पट्टी बांध देने से उसे नहीं दिखाई देता उसी प्रकार ज्ञानावरणीय कर्म के उदय से आत्मा पदार्थ के विशेष स्वरूप को नहीं जान पाती, उसे ज्ञान प्राप्त नहीं होता। ____२. दर्शनावरणीय - पदार्थ की सत्ता-सामान्य धर्म को जानना दर्शन है। जिस कर्म के द्वारा दर्शन का आवरण हो, उसे दर्शनावरणीय कर्म कहते हैं। दर्शनावरणीय कर्म द्वारपाल के समान है। जैसे द्वारपाल जिस पुरुष से नाराज है उसे राजा के पास जाने से रोक देता है चाहे राजा उसे देखना भी चाहता हो। इसी प्रकार दर्शनावरणीय कर्म आत्मा के दर्शन में रुकावट उत्पन्न करता है।
३. वेदनीय - अनुकूल और प्रतिकूल विषयों की प्राप्ति होने पर जो सुख दुःख रूप से अनुभव किया जाय, वह वेदनीय कर्म है। शहद लिपटी तलवार की धार के समान यह वेदनीय कर्म है। शहद को चाटने के समान साता वेदनीय है और धार से जीभ कट जाने के समान असातावेदनीय है।
४. मोहनीय - जिस कर्म के उदय से आत्मा अच्छे बुरे के विवेक को खो देती है, हित अहित को नहीं समझती, उसे मोहनीय कर्म कहते हैं। यह कर्म मदिरा के समान है। मदिरा पीने से जैसे प्राणी अपना विवेक खो देता है, अपना भूला बुरा नहीं सोच सकता, इसी प्रकार मोहनीय कर्म के उदय से जीव हित, अहित, अच्छे, बुरे का विवेक खो देता है तथा बेभान हो जाता है।
५. आयुष्य - जिस कर्म के उदय से जीव स्व कर्मोपार्जित नरकादि गति में नियत काल तक रहता है, उसे आयु कर्म कहते हैं। यह कर्म कारागार के समान है। जैसे कैदी को कारागार की अवधि समाप्त होने तक कारागार में रहना पड़ता है, पहले नहीं छूट सकता, उसी प्रकार जीव को आयुष्य कर्म के उदय से निश्चित काल तक नरक आदि गतियों में रहना पड़ता है।
६. नाम - जिस कर्म से जीव नरकादि गति पा कर विविध पर्यायों का अनुभव करता है उसे नाम कर्म कहते हैं। यह कर्म चित्रकार के समान है। जैसे चित्रकार विविध रंगों से विविध रूप बनाता है उसी प्रकार नाम कर्म के उदय से जीव अच्छे बुरे नाना प्रकार के रूप पाता है और विविध पर्यायों का अनुभव करता है।
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