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________________ ३३४ प्रज्ञापना सूत्र #中中中中中中中中中中中中中中中中平特 विवेचन - प्रस्तुत सूत्र में केवली समुद्घात की प्रक्रिया समझाई गयी है। ' शंका - आवर्जीकरण किसे कहते हैं? क्या सभी केवली भगवान् आवर्जीकरण करते हैं ? ... समाधान - आवर्जीकरण का अर्थ अभिमुख करना है अर्थात् आत्मा को मोक्ष की ओर अभिमुख करना आवर्जीकरण है। केवली समुद्घात आदि के द्वारा यथायोग्य कर्मों की उदीरणा आदि करके उदयावलिका में प्रक्षेपण (डालने) रूप शुभ योगों के व्यापार के द्वारा स्वयं को मोक्ष के साथ अभियोजित करना (जोड़ना) आवर्जीकरण कहलाता है। सभी केवली भगवान् आवर्जीकरण अवश्य . करते हैं। केवली समुद्घात वाले केवली समुद्घात करने के पहले आवर्जीकरण करते हैं इसलिए आवर्जीकरण का दूसरा नाम आवश्यक करण भी है। जो केवली भगवान् केवली समुद्घात करते हैं वे पहले आवर्जीकरण करते हैं और उसके बाद केवली समुद्घात करते हैं। आवर्जीकरण का काल असंख्यात समय प्रमाण अंतर्मुहूर्त का है। केवली समुद्घात की प्रक्रिया - केवली समुद्घात में आठ समय लगते हैं पहले समय में केवली भगवान् लम्बाई में ऊपर और नीचे लोक पर्यन्त, चौड़ाई में अपनी शरीर प्रमाण दण्ड करते हैं। दूसरे समय में कपाट, तीसरे समय में मन्थान करते हैं और चौथे समय में सारा लोक भर देते हैं। पांचवें समय में लोक का संहरण करते हैं, छठे समय में मन्थान का, सातवें समय में कपाट का और आठवें समय में दण्ड का संहरण करते हैं और तत्पश्चात् नवमें समय में केवली भगवान् शरीरस्थ हो जाते हैं। आठवें समय में दण्ड संहरण करना और शरीरस्थ होना ये दो क्रियाएं होती हैं। नवमें समय में दण्ड संहरण की क्रिया नहीं होती है, संहरण रहित (पूर्ववत्) शरीरस्थ अवस्था हो जाती है। केवली समुद्घात में कर्म प्रकृतियों के क्षपणा की प्रक्रिया - केवली भगवन् के वेदनीय, नाम, गोत्र और आयु-इन चार कर्मों की ८५ प्रकृतियां सत्ता में रहती हैं। नाम कर्म की ८० प्रकृतियां-शुभ नाम कर्म की ५२ और अशुभ नाम कर्म की २८, वेदनीय की दो - साता वेदनीय और असाता वेदनीय, गोत्र कर्म की दो-उच्च गोत्र और नीच गोत्र तथा आयु की एक-मनुष्यायु। केवली समुद्घात के पहले समय में केवली भगवान् अशुभ नाम कर्म की २८ प्रकृतियां, असाता वेदनीय और नीच गोत्र इन ३० प्रकृतियों की स्थिति के असंख्यात खण्ड करते हैं और अनुभाग के अनन्त खण्ड करते हैं तथा स्थिति और अनुभाग का एक एक खण्ड बाकी रख कर शेष खण्डों का क्षय करते हैं। दूसरे समय में केवली भगवान् शुभ नाम कर्म की ५२ साता वेदनीय और उच्च गोत्र इन ५४ प्रकृतियों की स्थिति के असंख्यात खण्ड करते हैं और अनुभाग के अनन्त खंड करते हैं। स्थिति का खण्ड स्थिति में और अनुभाग का खण्ड अनुभाग में मिलाते हैं और एक खण्ड स्थिति का और एक Jain Education International For Personal & Private Use Only www.jainelibrary.org
SR No.004096
Book TitlePragnapana Sutra Part 04
Original Sutra AuthorN/A
AuthorNemichand Banthiya, Parasmal Chandaliya
PublisherAkhil Bharatiya Sudharm Jain Sanskruti Rakshak Sangh
Publication Year2008
Total Pages358
LanguageHindi, Sanskrit
ClassificationBook_Devnagari & agam_pragyapana
File Size8 MB
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