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________________ ३३२ प्रज्ञापना सूत्र सव्वे वि णं भंते! केवली समोहणंति, सव्वे वि णं भंते! केवली समुग्घायं गच्छंति? गोयमा! णो इणढे समठे। जस्साऽऽउएण तुल्लाइं बंधणेहिं ठिईहि य। भवोवग्गहकम्माइं, समुग्घायं से ण गच्छइ॥१॥ अगंतूणं समुग्घायं अणंता केवली जिणा। जरमरणविप्पमुक्का, सिद्धिं वरगइं गया॥२॥७१०॥ कठिन शब्दार्थ - कम्मंसा - कर्मांश, अक्खीणा - क्षीण नहीं हुए हैं, सव्वबहुप्पएसे - सबसे अधिक प्रदेशों वाला, विसमसमीकरणयाए - विषम कर्मों का समीकरण (सम) करने के लिए, भवोवग्गहकम्माई - भवोपग्राही कर्मों का, जरमरणविप्पमुक्का - जरा और मरण से सर्वथा रहित। भावार्थ - प्रश्न - हे भगवन् ! किस प्रयोजन (कारण) से केवली समुद्घात करते हैं ? उत्तर - हे गौतम! केवली के चार कर्मांश क्षीण नहीं हुए हैं, वेदन नहीं किये गये हैं अनिर्जीर्ण (निर्जरा को प्राप्त नहीं) हुए हैं वे चार कर्म इस प्रकार हैं - १. वेदनीय २. आयु ३. नाम और गोत्र। उनका वेदनीय कर्म सबसे अधिक प्रदेशों वाला होता है और सबसे कम प्रदेशों वाला आयु कर्म होता है। वे बंधनों और स्थितियों से विषम कर्म को सम करते हैं। वास्तव में बंधनों और स्थितियों से विषम कर्मों को सम करने के लिए ही केवली केवलि समुद्घात करते हैं तथा इसी प्रकार केवलि समुद्घात को प्राप्त होते हैं। प्रश्न - हे भगवन्! क्या सभी केवली भगवान्, केवली समुद्घात करते हैं? क्या सब केवलि समुद्घात को प्राप्त होते हैं ? उत्तर - हे गौतम! यह अर्थ समर्थ नहीं है। गाथार्थ - जिसके भवोपग्राही कर्म बंधन एवं स्थिति से आयु कर्म के तुल्य (समान) होते हैं वह केवली केवलि समुद्घात नहीं करता॥१॥ ____समुद्घात किये बिना ही अनन्त केवलज्ञानी जिनेन्द्र जरा और मरण से सर्वथा रहित हुए हैं तथा श्रेष्ठ सिद्धि गति को प्राप्त हुए हैं। विवेचन - प्रस्तुत सूत्र में केवलि समुद्घात करने का कारण स्पष्ट किया गया है। केवली समुद्घात वे ही केवली करते हैं जिनकी आयु कम होती है और वेदनीय, नाम और गोत्र इन तीन कर्मों की स्थिति एवं प्रदेश अधिक होते हैं। उन सबको समान करने के लिए केवलि समुद्घात किया जाता है। Jain Education International For Personal & Private Use Only www.jainelibrary.org
SR No.004096
Book TitlePragnapana Sutra Part 04
Original Sutra AuthorN/A
AuthorNemichand Banthiya, Parasmal Chandaliya
PublisherAkhil Bharatiya Sudharm Jain Sanskruti Rakshak Sangh
Publication Year2008
Total Pages358
LanguageHindi, Sanskrit
ClassificationBook_Devnagari & agam_pragyapana
File Size8 MB
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