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________________ छत्तीसवां समुद्घात पद- केवली समुद्घात क्यों और क्यों नहीं ? एक सौ अट्ठाईस धनुष साढ़े तरह अंगुल से कुछ विशेषाधिक परिधि वाला है। एक महर्द्धिक यावत् महासुखी देव विलेपन सहित सुगंध की एक बड़ी डिबिया को खोलता है फिर विलेपन युक्त सुगंध की खुली हुई उस डिबिया को हाथ में लेकर सम्पूर्ण जम्बूद्वीप के तीन चुटकियों में इक्कीस बार चक्कर लगा कर वापस शीघ्र आ जाय तो हे गौतम! क्या उन गंध के पुद्गलों से सम्पूर्ण जम्बूद्वीप स्पृष्ट हो है? हाँ भगवन् ! स्पृष्ट हो जाता है। हे गौतम! क्या छद्मस्थ मनुष्य सम्पूर्ण जम्बूद्वीप में स्पृष्ट उन घ्राणपुद्गलों के वर्ण को चक्षु से, गंध को नासिका से, रस को रसनेन्द्रिय से और स्पर्श को स्पर्शनेन्द्रिय से किंचित् भी जान देख सकता है ? ३३१ leticket हे भगवन्! यह अर्थ समर्थ नहीं है । इसी कारण से हे गौतम! ऐसा कहा जाता है कि छद्मस्थ मनुष्य उन निर्जरा- पुद्गलों के वर्ण को नेत्र से, गंध को नाक से, रस को रसनेन्द्रिय से और स्पर्श को स्पर्शनेन्द्रिय से किंचित् भी नहीं जान देख सकता। हे आयुष्मन् श्रमण ! वे निर्जरा पुद्गल सूक्ष्म कहे गए हैं तथा वे सम्पूर्ण लोक को स्पर्श कर के रहे हुए हैं । विवेचन प्रस्तुत सूत्र में स्पष्ट किया गया है कि छद्मस्थ मनुष्य केवलि समुद्घात से समवहत केवली भगवान् द्वारा निर्जीर्ण अंतिम पुद्गलों को जान देख नहीं सकता क्योंकि वे अत्यंत सूक्ष्म हैं तथा सर्वत्र फैले हुए हैं। अर्थात् केवलि समुद्घात के समय शरीर से बाहर निकाले हुए चरम निर्जरा पुद्गलों से सारा लोक व्याप्त होता हैं जिसे केवली ही जान देख सकते हैं, छंद्मस्थ मनुष्य नहीं । यहाँ 'छद्मस्थ मनुष्य' का अशय इन्द्रियों से देखने वाला तथा सामान्य मति आदि ज्ञान वाला मनुष्य समझना चाहिये। विशिष्ट अवधिज्ञान वाले मनुष्य उन पुद्गलों को जान सकते हैं। विशेषावश्यक भाष्य में बताया है - 'संखिज्ज कम्मदव्वे लोगे थोवुणगं पलियं ।' अर्थात् लोक के बहुत संख्याता भागों जितने क्षेत्र को तथा देशोन पल्योपम जितने भूतकाल और भविष्यत् काल को जानने वाला अवधिज्ञानी कर्म द्रव्यों को भी जान सकता है। केवली समुदघात क्यों और क्यों नहीं? कम्हाणं भंते! केवली समुग्धायं गच्छइ ? गोयमा ! केवलिस्स चत्तारि कम्मंसा अक्खीणा अवेड्या अणिज्जिणा भवंति, तंजहा - वेयणिज्जे, आउए, णामे, गोए । सव्वबहुप्पएसे से वेयणिजे कम्मे हवइ, सव्वत्थोवे आउए कम्मे हवइ, विसमं समं करेइ बंधणेहिं ठिईहि य विसमसमीकरणयाए बंधणेहिं ठिईहि य। एवं खलु केवली समोहणइ एवं खलु समुग्घायं गच्छइ । Jain Education International For Personal & Private Use Only www.jainelibrary.org
SR No.004096
Book TitlePragnapana Sutra Part 04
Original Sutra AuthorN/A
AuthorNemichand Banthiya, Parasmal Chandaliya
PublisherAkhil Bharatiya Sudharm Jain Sanskruti Rakshak Sangh
Publication Year2008
Total Pages358
LanguageHindi, Sanskrit
ClassificationBook_Devnagari & agam_pragyapana
File Size8 MB
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