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________________ चौतीसवां परिचारणा पद - अनन्तरागत आहार द्वार . २४९ WHEENNHEINF中中中中中中种种种种种种MANHANWHI-MEGAH-I-FISHEEACHERMEI-H W林 भावार्थ - प्रश्न - हे भगवन् ! क्या नैरयिक अनन्तराहारक-उत्पत्ति क्षेत्र प्राप्ति के साथ ही (अनन्तर) आहार करने वाले होते हैं ? इसके बाद निर्वर्तना - शरीर की निष्पत्ति होती है? फिर पर्यादानता-यथायोग्य रूप से अंग और प्रत्यंगों से लोमाहार आदि द्वारा चारों ओर से पुद्गलों का ग्रहण करते हैं फिर परिणामना - गृहीत पुद्गलों को इन्द्रिय आदि रूप में परिणत करते हैं ? तत्पश्चात् परिचारणा-विषयभोग और उसके बाद विकुर्वणा करते हैं ? उत्तर - हाँ गौतम! नैरयिक अनन्तराहारक होते हैं फिर उनके शरीर की निष्पत्ति होती है तत्पश्चात् पर्यादानता और परिणामना होती है तत्पश्चात् वे परिचारणा करते हैं और विकुर्वणा करते हैं। विवेचन - नैरयिक उत्पत्ति के अनन्तर ही आहार करते हैं, फिर शरीर बनाते हैं, फिर पुद्गलों का पर्यादान करते हैं फिर इन्द्रिय आदि रूप में परिणत करते हैं फिर शब्द आदि विषयों के भोग रूप परिचारणा करते हैं और फिर वैक्रियं करते हैं। असुरकुमारा णं भंते! अणंतराहारा, तओ णिव्वत्तणया, तओ परियाइणया, तओ परिणामणया, तओ विउव्वणया, तओ पच्छा परियारणया? हंता गोयमा! असुरकुमारा अणंतराहारा तओ णिव्वत्तणया जाव तओ पच्छा परियारणया एवं जाव थणियकुमारा। ___भावार्थ - प्रश्न - हे भगवन् ! क्या असुरकुमार अनन्तराहारक होते हैं ? फिर उनके शरीर की निष्पत्ति होती है? फिर वे पर्यादानता व परिणामना करते हैं। तत्पश्चात् क्रमशः विकुर्वणा और परिचारणा करते हैं? उत्तर - हे गौतम! असुरकुमार अनन्तराहारी-उत्पत्ति क्षेत्र की प्राप्ति के समय ही आहार करने वाले होते हैं फिर शरीर की उत्पत्ति होती है यावत् फिर वे परिचारणा करते हैं। इसी प्रकार यावत् स्तनितकुमार. पर्यंत समझना चाहिये। . विवेचन - असुरकुमार आदि देवों में विकुर्वणा पहले होती है और परिचारणा बाद में जब कि नैरयिकों आदि में परिचारणा के बाद विकुर्वणा का क्रम है। देवों का स्वभाव ही ऐसा है कि विशिष्ट शब्दादि के उपभोग की अभिलाषा होने पर पहले वे वैक्रिय रूप बनाते हैं तत्पश्चात् परिचारणा करते हैं। पुंढवीकाइया णं भंते! अणंतराहारा, तओ णिव्वत्तणया, तओ परियाइणया, तओ परिणामणया, तओ परियारणया, तओ विउव्वणया? .. हंता गोयमा! तं चेव जाव परियारणया, णो चेव णं विउव्वणया। एवं जाव चरिदिया, णवरं वाउक्काइया पंचिंदियतिरिक्खजोणिया मणूसा य जहा णेरइया। वाणमंतर जोइसिय वेमाणिया जहा असुरकुमारा॥६७४॥ Jain Education International For Personal & Private Use Only www.jainelibrary.org
SR No.004096
Book TitlePragnapana Sutra Part 04
Original Sutra AuthorN/A
AuthorNemichand Banthiya, Parasmal Chandaliya
PublisherAkhil Bharatiya Sudharm Jain Sanskruti Rakshak Sangh
Publication Year2008
Total Pages358
LanguageHindi, Sanskrit
ClassificationBook_Devnagari & agam_pragyapana
File Size8 MB
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