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चउत्तीसइमं परियारणापयं
चौतीसवां परिचारणा पद
प्रज्ञापना सूत्र के तेतीसवें पद में ज्ञान के परिणाम विशेष रूप अवधिज्ञान का निरूपण किया गया है। अब इस चौतीसवें प्रवीचार (परिचारणा) पद में वेद परिणाम विशेष रूप परिचारणा का वर्णन किया जाता है। जिसकी संग्रहणी गाथा इस प्रकार है
अणंतरागयाहारे १ आहारे भोयणाइ य २ ।
पोग्गला णेव जाणंति ३ अज्झवसाणा ४ य आहिया ॥ १ ॥ सम्मत्तस्साहिगमे ५ तत्तो परियारणा ६ य बोद्धव्वा । - काए फासे रूवे सद्दे य मणे य अप्प बहुं ७ ॥ २॥
भावार्थ - १. अनन्तरागत आहार २. आहार के विषय में आभोग या अनाभोगपना ३. . आहार रूप में ग्रहण किये हुए पुद्गलों को नहीं जानते ४. अध्यवसान- अध्यवसायों का कथन ५. सम्यक्त्व अभिगम - सम्यक्त्व की प्राप्ति ६. काय, स्पर्श, रूप, शब्द और मन से संबंधित परिचारणा और ७. अंत में परिचारणा करने वालों का अल्प बहुत्वं इन सात द्वारों से चौतीसवें पद का निरूपण किया गया है। विवेचन चौतीसवें पद में प्रतिपाद्य विषय की प्ररूपणा दो संग्रहणी गाथाओं में वर्णित उपरोक्त सात द्वारों से समझनी चाहिये।
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१. अनन्तरागत आहार द्वार
णेरड्या णं भंते! अणंतराहारा तओ णिव्वत्तणया, तओ परियाइणया तओ परिणामणया, तओ परियारणया तओ पच्छा विउव्वणया ?
हंता गोयमा ! णेरड्या णं अणंतराहारा तओ णिव्वत्तणया तओ परियाइणया, तओ परिणामणया, तओ परियारणया, तओ पच्छा विउव्वणया ।
कठिन शब्दार्थ - अणंतराहारा - अनंतराहारक - उत्पत्ति क्षेत्र की प्राप्ति के समय ही आहार करने वाले, णिव्वत्तणया - निर्वर्तना शरीर की निष्पत्ति, परियाइणया पर्यादानता - चारों ओर से पुद्गलों को ग्रहण करना, परिणामणया परिणामना - गृहीत पुद्गलों का इन्द्रिय आदि रूप में परिणाम - परिणत होना, परियारणया - परिचारणा-शब्दादि विषयों का उपभोग, विउव्वणया - विकुर्वणा- वैक्रिय लब्धि से अनेक प्रकार के अनेक रूप बनाना ।
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