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तेतीसवां अवधि पद - शेष द्वार
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२. अनानुगामिक (अननुगामी) - जो अवधिज्ञान जहाँ उत्पन्न हुआ है वहीं रहता है, ज्ञानी के उस स्थान से चले जाने पर जो ज्ञानी के साथ नहीं जाता और ज्ञानी के वापिस वहाँ आने पर जो पुन: हो जाता है वह अनानुगामिक अवधिज्ञान कहलाता है। जैसे धूणी का प्रकाश धूणी के आसपास रहता है धूणी से दूर जाने पर धूणी का प्रकाश साथ में नहीं जाता और धूणी पर लौट आने पर पुनः प्रकाश प्राप्त हो जाता है।
३. वर्द्धमान - जो अवधिज्ञान उत्पन्न होने के बाद परिणाम विशुद्धि के साथ बढ़ता है वह वर्द्धमान अवधिज्ञान कहलाता है।
४. हीयमान - जो अवधिज्ञान उत्पन्न होने के बाद परिणाम अविशुद्धि के कारण हीन होता जाय उसे हीयमान अवधिज्ञान कहते हैं। . ५. प्रतिपाती - गिरने के स्वभाव वाला अवधिज्ञान प्रतिपाती कहलाता है।
६. अप्रतिपाती - जिस अवधिज्ञान का स्वभाव प्रतिपाती नहीं है जो भव पर्यंत स्थिर रहने वाला है वह अप्रतिपाती अवधिज्ञान है। ... ७. अवस्थित - स्थिर रहने वाला अर्थात् उस भव तक अवधिज्ञान एक सरीखा रहता है तथा कदाचित् जो अवधिज्ञान जन्मान्तर होने पर भी आत्मा में अवस्थित रहता है या केवलज्ञान की उत्पत्ति पर्यन्त ठहरता है वह अवस्थित अवधिज्ञान कहलाता है।
८. अनवस्थित - एक सरीखा नहीं रहने वाला अवधिज्ञान अनवस्थित कहलाता है।
नैरयिकों और चारों जाति के देवों का अवधिज्ञान आनुगामिक, अप्रतिपाति और अवस्थित होता है। मनुष्यों और तिर्यंच पंचेन्द्रियों में अवधिज्ञान के उपरोक्त सभी भेद पाते हैं।
॥प्रज्ञापना भगवती का तेतीसवां अवधिपद समाप्त॥
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