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प्रज्ञापना सूत्र
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भावार्थ - प्रश्न - हे भगवन्! क्या पृथ्वीकायिक अनन्तराहारक होते हैं ? फिर उनके शरीर की निष्पत्ति होती है तत्पश्चात् पर्यादानता, परिणामना, फिर परिचारणा और फिर क्या विकुर्वणा होती है ?
उत्तर - हाँ गौतम ! पृथ्वीकायिक जीव अनन्तराहारक होते हैं यावत् परिचारणा पर्यन्त पूर्ववत् समझना चाहिये किन्तु वे विकुर्वणा नहीं करते। इसी प्रकार यावत् चउरिन्द्रिय तक कहना चाहिये विशेषता यह है कि वायुकायिक जीव, पंचेन्द्रिय तिर्यंच और मनुष्यों के विषय में नैरयिकों के समान समझना चाहिए। वाणव्यंतर, ज्योतिषी और वैमानिकों की वक्तव्यता असुरकुमारों की वक्तव्यता के समान कहनी चाहिये ।
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विवेचन प्रस्तुत सूत्र में नैरयिक आदि चौबीस दण्डकों के जीवों के विषय में अनन्तराहार, निष्पत्ति, पर्यादानता, परिणामना, परिचारणा और विकुर्वणा के क्रम का निरूपण किया गया है।
नैरयिक, उत्पत्ति क्षेत्र में पहुँचते ही समय के व्यवधान के बिना ही आहार करते हैं तत्पश्चात् उनके शरीर की निर्वर्तना (निष्पत्ति - रचना) होती है। शरीर निष्पत्ति के बाद अंग प्रत्यंगों द्वारा लोमाहार आदि से पुद्गलों का पर्यादान-ग्रहण होता है। फिर उन गृहीत पुद्गलों का शरीर इन्द्रिय आदि के रूप में परिणमन होता है। परिणमन के बाद वे परिचारणा करते हैं और तत्पश्चात् विकुर्वणा करते हैं। नैरयिकों की तरह ही वायुकाय, तिर्यंच पंचेन्द्रिय और मनुष्यों के विषय में समझना चाहिये। चार स्थावर और तीन विकलेन्द्रिय जीव विकुर्वणा नहीं करते अतः विकुर्वणा को छोड़ कर शेष बोल कह देना । चारों जाति के देवों का कथन भी नैरयिकों की तरह समझना किन्तु देवों में स्वभाव से ही पहले विकुर्वणा होती है तत्पश्चात् वे परिचारणा करते हैं। कहा भी है
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पुव्वं विउव्वणा खलु पच्छा परियारणा सुरगणाणं ।
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सेसाणं पुष्व परियारणा उ पच्छा विउव्वणया ॥
अर्थात् - सभी देवों में पहले विकुर्वणा और बाद में परिचारणा होती है जबकि शेष जीवों में पहले परिचारणा और फिर विकुर्वणा होती है ।
२. आभोग अनाभोग आहार द्वार
णेरइयाणं भंते! आहारे किं आभोगणिव्वत्तिए, अणाभोगणिव्वत्तिए ? गोयमा! आभोगणिव्वत्तिए वि अणाभोगणिव्वत्तिए वि, एवं असुरकुमाराणं जाव वेमाणियाणं, णवरं एगिंदियाणं णो आभोगणिव्वत्तिए, अणाभोगणिव्वत्तिए ।
कठिन शब्दार्थ - आभोगणिव्वत्तिए - आभोग- निर्वर्तित-इच्छा पूर्वक, अणाभोगणिव्वत्तिए - अनाभोगनिर्वर्तित-बिना इच्छा से ।
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