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________________ तेतीसवां अवधि पद - विषय द्वार २३७ णागकुमारा णं जहण्णेणं पणवीसं जोयणाई, उक्कोसेणं संखिजे दीवसमुद्दे ओहिणा जाणंति पासंति एवं जाव थणियकुमारा। भावार्थ - प्रश्न - हे भगवन् ! असुरकुमार अवधिज्ञान से कितने क्षेत्र को जानते देखते हैं? . उत्तर - हे गौतम! असुरकुमार जघन्य पच्चीस योजन और उत्कृष्ट असंख्यात द्वीप समुद्रों को अवधिज्ञान से जानते देखते हैं। _ नागकुमार देव जघन्य पच्चीस योजन और उत्कृष्ट संख्यात द्वीप समुद्रों को अवधिज्ञान से जानते देखते हैं इसी प्रकार यावत् स्तनिकुमार तक समझना चाहिये। विवेचन - असुरकुमार देवों के अवधिज्ञान का विषय जघन्य पच्चीस योजन उत्कृष्ट असंख्यात द्वीप समुद्र है। अवधिज्ञान का यह जघन्य विषय दस हजार वर्ष की स्थिति वाले असुरकुमार देवों की अपेक्षा समझना चाहिये। पल्योपम की स्थिति वाले असुरकुमार देवों के अवधिज्ञान का विषय संख्यात द्वीप समुद्र है और सागरोपम की स्थिति वाले असुरकुमार देवों के अवधिज्ञान का विषय असंख्यात द्वीप समुद्र है। नागकुमार आदि नवनिकाय के देवों के अवधिज्ञान का विषय जघन्य पच्चीस योजन उत्कृष्ट संख्यात द्वीप समुद्र है। .. पंचिंदियतिरिक्खजोणिया णं भंते! केवइयं खेत्तं ओहिणा जाणंति पासंति? गोयमा! जहण्णेणं अंगुलस्स असंखिजइभागं उक्कोसेणं असंखिज्जे दीव समुद्दे०। मणूसा णं भंते! ओहिणा केवइयं खेत्तं जाणंति पासंति? गोयमा! जहण्णेणं अंगुलस्स असंखिजइभागं उक्कोसेणं असंखिज्जाइं अलोए लोयप्पमाणमेत्ताइं खंडाइं ओहिणा जाणंति पासंति। वाणमंतरा जहा णागकुमारा॥६६८॥ कठिन शब्दार्थ - लोयप्पमाणमेत्ताई - लोक प्रमाण, खंडाइं - खण्डों को। 'भावार्थ - प्रश्न - हे भगवन्! पंचेन्द्रिय तिर्यंच योनिक जीव अवधिज्ञान से कितने क्षेत्र को जानते देखते हैं? उत्तर - हे गौतम! पंचेन्द्रिय तिर्यंच योनिक जीव अवधिज्ञान से जघन्य अंगुल के असंख्यातवें भाग को और उत्कृष्ट असंख्यात द्वीप समुद्रों को जानते देखते हैं। प्रश्न - हे भगवन्! मनुष्य अवधिज्ञान से कितने क्षेत्र को जानते देखते हैं ? उत्तर - हे गौतम! मनुष्य जघन्य अंगुल के असंख्यातवें भाग क्षेत्र को और उत्कृष्ट अलोक में लोकप्रमाण असंख्यात खण्डों को अवधिज्ञान से जानते देखते हैं। वाणव्यंतर देवों के अवधिज्ञान का विषय नागकुमार देवों के समान समझना चाहिये। Jain Education International For Personal & Private Use Only www.jainelibrary.org
SR No.004096
Book TitlePragnapana Sutra Part 04
Original Sutra AuthorN/A
AuthorNemichand Banthiya, Parasmal Chandaliya
PublisherAkhil Bharatiya Sudharm Jain Sanskruti Rakshak Sangh
Publication Year2008
Total Pages358
LanguageHindi, Sanskrit
ClassificationBook_Devnagari & agam_pragyapana
File Size8 MB
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