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________________ २३८ प्रज्ञापना सूत्र विवेचन - तिर्यंच पंचेन्द्रिय के अवधिज्ञान का विषय जघन्य अंगुल का असंख्यातवां भाग उत्कृष्ट असंख्यात द्वीप समुद्र है। मनुष्य के अवधिज्ञान का विषय जघन्य अंगुल का असंख्यातवां भाग उत्कृष्ट संपूर्ण लोक है तथा अलोक में लोकप्रमाण असंख्यात खण्ड जानने का सामर्थ्य है। यद्यपि अलोक में अवधिज्ञान के विषय रूपी द्रव्य नहीं है किन्तु क्षमता (विषय) की अपेक्षा जानने का सामर्थ्य है ऐसा समझना चाहिये। ___ अलोकाकाश में रूपी द्रव्य नहीं होने से वहाँ के अरूपी आकाश प्रदेशों को अवधिज्ञान के द्वारा नहीं देखा जाता है। परन्तु जिस अवधिज्ञान की अलोकाकाश में देखने की जितनी-जितनी शक्ति बढ़ती है। उससे लोक में रहे हुए सूक्ष्म से सूक्ष्म पुद्गलों (परमाणु आदि) को देखने का ज्ञान भी बढ़ जाता है। टीका में कहा है - उक्तं "सामत्थमेत्तमुतं, ददुव्वं जंइ हवेज पेच्छज्ज। न उ तं तं इच्छइ, छिज्जइ सो रुवि निबंधणो भणिओ॥ १॥ वहुंतो पुण ओहिं लोगत्यं चेव पासइ दव्वं। सुहमयरं २, परमोहि जाव परमाणु॥ २॥" वाणव्यंतर देवों के अवधिज्ञान का विषय जघन्य २५ योजन उत्कृष्ट संख्यात द्वीप समुद्र है। अवधिज्ञान का यह जघन्य विषय दस हजार वर्ष की स्थिति वाले वाणव्यंतर देवों की अपेक्षा समझना चाहिये। जोडसिया णं भंते! केवडयं खेत्तं ओहिणा जाणंति पासंति? गोयमा! जहण्णेणं संखिजे दीवसमुहे, उक्कोसेण वि संखिज्जे दीवसमुद्दे०। भावार्थ - प्रश्न - हे भगवन् ! ज्योतिषी देव अवधिज्ञान से कितने क्षेत्र को जानते देखते हैं? उत्तर - हे गौतम! ज्योतिषी देव जघन्य संख्यात द्वीप समुद्रों तक तथा उत्कृष्ट भी संख्यात द्वीप समुद्रों तक अवधिज्ञान से जानते देखते हैं। .. सोहम्मगदेवा णं भंते! केवइयं खेत्तं ओहिणा जाणंति पासंति? गोयमा! जहण्णेणं अंगुलस्स. असंखिजइभाग, उक्कोसेणं अहे जाव इमीसे रयणप्पभाए हिट्ठिले चरमंते, तिरियं जाव असंखिजे दीवसमुद्दे उहं जाव सयाई विमाणाइं ओहिणा जाणंति पासंति, एवं ईसाणगदेवा वि। सणंकुमार देवा वि एवं चेव, णवरं जाव अहे दोच्चाए सक्करप्पभाए पुढवीए हिडिल्ले चरमंते, एवं माहिंददेवा वि।बंभलोयलंतग देवा० तच्चाए पुढवीए हिडिल्ले चरमंते, महासुक्कसहस्सारगदेवा० Jain Education International For Personal & Private Use Only www.jainelibrary.org
SR No.004096
Book TitlePragnapana Sutra Part 04
Original Sutra AuthorN/A
AuthorNemichand Banthiya, Parasmal Chandaliya
PublisherAkhil Bharatiya Sudharm Jain Sanskruti Rakshak Sangh
Publication Year2008
Total Pages358
LanguageHindi, Sanskrit
ClassificationBook_Devnagari & agam_pragyapana
File Size8 MB
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