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बत्तीसवां संयत पद
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गोयमा! णेरइया णो संजया, असंजया, णोसंजयासंजया णोसंजय णोअसंजय णोसंजयासंजया, एवं जाव चउरिदिया।
भावार्थ - प्रश्न - हे भगवन् ! नैरयिक क्या संयत होते हैं, असंयत होते हैं, संयतासंयत होते हैं अथवा नोसंयत नोअसंयत नोसंयतासंयत होते हैं ?
उत्तर - हे गौतम! नैरयिक संयत नहीं होते, संयतासंयत नहीं होते और नोसंयत नोअसंयत नोसंयतासंयत भी नहीं होते किन्तु असंयत होते हैं। इसी प्रकार यावत् चउरिन्द्रियों तक समझना चाहिये।
पंचिंदियतिरिक्खजोणियाणं पुच्छा? .
गोयमा! पंचिंदियतिरिक्खजोणिया णो संजया, असंजया वि, संजयासंजया वि णो णोसंजयणोअसंजयणोसंजयासंजया।
भावार्थ - प्रश्न - हे भगवन्! पंचेन्द्रिय तिर्यंचयोनिक क्या संयत होते हैं, असंयत होते हैं, संयतासंयत होते हैं, अथवा नोसंयत नोअसंयत नोसंयतासंयत होते हैं ?
उत्तर - हे गौतम! पंचेन्द्रिय तिर्यंच योनिक संयत नहीं होते, असंयत होते हैं, संयतासंयत भी होते हैं किन्तु नोसंयत नोअसंयत नोसंयतासंयत नहीं होते।
विवेचन - अन्तर्मुहूर्त की स्थिति वाले तथा अंगुल के असंख्यातवें भाग की अवगाहना वाले तिर्यंच पंचेन्द्रिय जीव के भी श्रावक के व्रत हो सकते हैं तथा तिर्यंच पंचेन्द्रिय जीव-बारह व्रतधारी श्रावक भी हो सकते हैं।
तिर्यंच पंचेन्द्रियों में - संथारा, महाव्रतारोपण होते हुए भी भव के कारण से उनमें चारित्र के परिणाम अर्थात् छठा आदि गुणस्थान नहीं आ सकते हैं। चारित्र के परिणाम तो कषायों की तीसरी चौकड़ी (प्रत्याख्यानावरण) के क्षयोपशम से ही आते हैं। जबकि श्रावक के तो दूसरी चौकड़ी (अप्रत्याख्यानी) का ही क्षयोपशम होता है। अतः श्रावक के तीन करण, तीन योग से पापों का त्याग होने पर भी संयतपना नहीं आता है। जैसा कि जिनभद्रगणी ने विशेषणवती ग्रन्थ में कहा भी है -
'न महव्वय सब्भावे वि, चरण परिणाम संभवो तेसिं।
न बहुगुणानामपि जओ, केवल संभूइ परिणामो॥१॥' मणुस्साणं पुच्छा।
गोयमा! मणूसा संजया वि असंजया वि संजयासंजया वि णो णोसंजय णोअसंजयणोसंजयासंजया।
वाणमंतर जोइसिय वेमाणिया जहा णेरइया।
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