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प्रज्ञापना सूत्र
भावार्थ - प्रश्न - हे भगवन्! क्या मनुष्य संयत होते हैं, असंयत होते हैं, संयतासंयत होते हैं अथवा नोसंयत नोअसंयत-नोसंयतासंयत होते हैं ?
उत्तर - हे गौतम! मनुष्य संयत होते हैं, असंयत भी होते हैं, संयतांसंयत भी होते हैं किन्तु नोसंयत नोअसंयत नोसंयतासंयत नहीं होते हैं।
वाणव्यंतर, ज्योतिषी और वेमानिक देवों की वक्तव्यता नैरयिकों के समान समझनी चाहिये। सिद्धाणं पुच्छा।
गोयमा! सिद्धाणो संजया, णो असंजया, णो संजयासंजया, णोसंजयणोअसंजय णोसंजयासंजया।
"संजय असंजयमीसगा य जीवा तहेव मणया य। संजय रहिया तिरिया सेसा अस्संजया होंति॥६६५॥"
. ॥पण्णवणाए भगवईए बत्तीसइमं संजमपयं समत्तं॥ .. भावार्थ - प्रश्न - हे भगवन् ! सिद्ध संयत होते हैं ? इत्यादि प्रश्न।
उत्तर - हे गौतम! सिद्ध संयत नहीं होते, असंयत नहीं होते, संयतासंयत भी नहीं होते किन्तु नोसंयत नोअसंयत नोसंयतासंयत होते हैं।
गाथा का अर्थ - जीव और मनुष्य संयत, असंयत और मिश्र (संयतासंयत) होते हैं। तिर्यंच संयत नहीं होते। शेष (एकेन्द्रिय, विकलेन्द्रिय, नैरयिक और देव) असंयत होते हैं ॥ ६६५॥
विवेचन - प्रस्तुत सूत्र में समुच्चय जीव और चौबीस दण्डकों के जीवों में संयत आदि की प्ररूपणा की गयी है।
१. संयत - सम्पूर्ण सावध योगों से निवृत्त पांच महाव्रतधारी श्रमण। २. असंयत - सावध योगों से अविरत जीव। ३. संयतासंयत - जो हिंसादि से एक देश से विरत होते हैं और एक देश से विरत नहीं होते हैं।
४. नोसंयत नोअसंयत नोसंयतासंयत - उपरोक्त तीन अवस्थाओं से रहित सिद्ध भगवान्। - समुच्चयजीव संयत, असंयत, संयतासंयत, नोसंयत-नोअसंयत-नोसंयतासंयत होता है। तिर्यंच पंचेन्द्रिय और मनुष्य के अतिरिक्त शेष २२ दण्डकों के जीव असंयत होते हैं। तिर्यंच पंचेन्द्रिय असंयत
और संयतासंयत होते हैं। मनुष्य संयत, असंयत और संयतासंयत होते हैं। सिद्ध भगवान् न संयत होते हैं, न असंयत होते हैं और न संयतासंयत होते हैं किन्तु वे नोसंयत-नोअसंयत-नोसंयतासंयत होते हैं।
॥ प्रज्ञापना भगवती का बत्तीसवां संयतपद समाप्त।
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