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________________ प्रज्ञापना सूत्र 料样本FI半球本书将中中中中中中中中中中中中中中中中中中中中中中中 प्रश्न - हे भगवन् ! बेइन्द्रिय जीवों का अनाकारोपयोग कितने प्रकार का कहा गया है? उत्तर - हे गौतम ! बेइन्द्रिय जीवों का साकारोपयोग चार प्रकार का कहा गया है- वह इस प्रकार है - १. आभिनिबोधिकज्ञान साकारोपयोग २. श्रुतज्ञान साकारोपयोग ३. मति अज्ञान साकारोपयोग और ४. श्रुत अज्ञान साकारोपयोग। प्रश्न - हे भगवन् ! बेइन्द्रिय जीवों का अनाकारोपयोग कितने प्रकार का कहा गया है ? ___ उत्तर - हे गौतम! बेइन्द्रिय जीवों का एक मात्र अचक्षुदर्शन अनाकारोपयोग कहा गया है। इसी प्रकार तेइन्द्रिय जीवों के विषय में भी समझना चाहिये। चउरन्द्रिय जीवों के विषय में भी इसी प्रकार समझना चाहिये। किन्तु इतनी विशेषता है कि उनका अनाकारोपयोग दो प्रकार का कहा गया है। वह इस प्रकार है - चक्षुदर्शन अनाकारोपयोग और अचक्षुदर्शन अनाकारोपयोग। विवेचन - बेइन्द्रियों का साकार उपयोग चार प्रकार का है। यथा - मतिज्ञान, श्रुतज्ञान, मतिअज्ञान और श्रुत अज्ञान। अपर्याप्तावस्था में सास्वादन सम्यक्त्व को प्राप्त हुए कितनेक जीवों में मति ज्ञान और श्रुतज्ञान होता है। शेष जीवों में मतिअज्ञान श्रुत अज्ञान होता है तथा अचक्षुदर्शन रूप एक अनाकार उपयोग होता है शेष उपयोग उनमें संभव नहीं है। तेइन्द्रिय, चउरिन्द्रिय जीवों में भी इसी प्रकार समझना चाहिये किन्तु चउरिन्द्रिय जीवों में अनाकार उपयोग दो प्रकार का होता है- चक्षुदर्शन और अचक्षुदर्शन। पंचिंदियतिरिक्खजोणियाणं जहा णेरइयाणं। मणुस्साणं जहा ओहिए उवओगे भणियं तहेव भाणियव्वं । वाणमंतरजोइसियवेमाणियाणं जहा णेरइयाणं॥६५९॥ भावार्थ - पंचेन्द्रिय तिर्यंचों का कथन नैरयिकों के समान समझना. चाहिये। मनुष्यों का उपयोग समुच्चय जीवों के उपयोग के समान कहना चाहिये। वाणव्यंतर, ज्योतिषी और वैमानिक देवों का कथन नैरयिकों के समान समझना चाहिये। विवेचन - पंचेन्द्रिय तिर्यंचों का साकार उपयोग छह प्रकार का कहा गया है वह इस प्रकार है - १. मतिज्ञान २. श्रुतज्ञान ३. अवधिज्ञान ४. मतिअज्ञान ५. श्रुतअज्ञान और ६. विभंगज्ञान तथा अनाकार उपयोग तीन प्रकार का कहा गया है यथा - १. चक्षुदर्शन २. अचक्षुदर्शन और ३. अवधिदर्शन क्योंकि कितनेक तिर्यंच पंचेन्द्रियों को अवधिज्ञान एवं अवधिदर्शन संभव है। मनुष्यों में आठों ही प्रकार का साकार उपयोग और चारों प्रकार का अनाकार उपयोग संभव है क्योंकि उनमें सभी ज्ञानों और सभी दर्शनों की लब्धि संभव है। वाणव्यंतर, ज्योतिषी और वैमानिकों में उपयोग का कथन नैरयिकों के समान कह देना चाहिए। Jain Education International For Personal & Private Use Only www.jainelibrary.org
SR No.004096
Book TitlePragnapana Sutra Part 04
Original Sutra AuthorN/A
AuthorNemichand Banthiya, Parasmal Chandaliya
PublisherAkhil Bharatiya Sudharm Jain Sanskruti Rakshak Sangh
Publication Year2008
Total Pages358
LanguageHindi, Sanskrit
ClassificationBook_Devnagari & agam_pragyapana
File Size8 MB
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