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अट्ठाईसवाँ आहार पद - द्वितीय उद्देशक - पर्याप्ति द्वार
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नरक देवों के छहों अपर्याप्तियों में छह भंग बताने से वे अशाश्वत हैं। परन्तु तिर्यंच पंचेन्द्रिय और तीन विकलेन्द्रियों में तीन भंग बताने से इनके अपर्याप्त का अन्तर्मुहूर्त विरहकाल के अन्तर्मुहूर्त से बड़ा समझना चाहिये।
सव्वपएस एगत्तपुहत्तेणं जीवाइया दंडगा पुच्छाए भाणियव्वा जस्स जं अस्थि तस्स तं पुच्छिजइ, जस्स जं णत्थि तस्स तं ण पुच्छिज्जइ जाव भासामणपजत्ती अपजत्तएसुणेरड्यदेवमणुएसु छब्भंगा, सेसेसु तियभंगो॥६५७॥ दारं १३॥
॥बीओ उद्देसओ समत्तो॥ ॥पण्णवणाए भगवईए अट्ठावीसइमं आहारपयं समत्तं॥ भावार्थ - सभी पदों में एकवचन और बहुवचन की अपेक्षा से जीवादि दण्डकों के अनुसार पृच्छा करनी चाहिये। जिस दंडक में जो पद संभव हो उसी की पृच्छा करनी चाहिये, जो पद जिसमें संभव नहीं हो उसकी पृच्छा नहीं करनी चाहिये। यावत् भाषा मन:पर्याप्ति से अपर्याप्त नैरयिकों, देवों और मनुष्यों में छह भंग और शेष स्थानों में तीन भंग समझने चाहिये॥ तेरहवां द्वार॥ - विवेचन - यहाँ भव्य पद में लगा कर प्रायः एकवचन और बहुवचन की अपेक्षा जीवादि दंडक के क्रम से पृथक्-पृथक् सूत्रों का कथन नहीं किया गया है। अत: मंद बुद्धि वालों को भ्रान्ति न हो जाय अत: उस संबंध में अतिदेश-सादृश्य प्रतिपादक सूत्र कहा है - 'सव्वपएस एगत्त' इत्यादि अर्थात् सभी पदों में एक वचन और बहुवचन की अपेक्षा से प्रश्न और उपलक्षण से उत्तर जीवादि दण्डकों में कहना चाहिए। जिस दंडक में जो पद है उसी का प्रश्न करना। जो नहीं है उसके विषय में पृच्छा नहीं करनी चाहिये। कहां तक ऐसा करना? इसके समाधान में कहा है कि चरम दंडक के कथन तक कह देना चाहिये, इसीलिए सूत्रकार ने कहा है - 'जाव भासामणपज्जत्तीए अपज्जत्तएसु' यावत् भाषामन पर्याप्ति से अपर्याप्तकों तक समझना चाहिये। द्वितीय उद्देशक समाप्त॥
॥द्वितीय उद्देशक समाप्त॥ ॥ प्रज्ञापना भगवती सूत्र के अट्ठाइसवें आहार पद का द्वितीय उद्देशक समाप्त॥
॥अट्ठाईसवां आहार पद समाप्त॥
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