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________________ २०६ प्रज्ञापना सूत्र - विवेचन - आहार पर्याप्ति से अपर्याप्त जीव एकवचन और बहुवचन की अपेक्षा अनाहारक होता है, आहारक नहीं क्योंकि आहार पर्याप्ति से अपर्याप्त विग्रह गति में ही होता है, उत्पत्ति स्थान को प्राप्त हुआ जीव प्रथम समय में ही आहार पर्याप्ति से पर्याप्त हो जाता है, यदि ऐसा नहीं हो तो उस समय आहारकपना घटित नहीं होता। शरीर पर्याप्ति से अपर्याप्त एकवचन की अपेक्षा 'कदाचित् आहारक होता है और कदाचित् अनाहारक होता है' उनमें विग्रह गति में अनाहारक और उत्पत्ति क्षेत्र को प्राप्त हुआ शरीर पर्याप्ति की समाप्ति तक आहारक होता है। इसी प्रकार इन्द्रिय पर्याप्ति से अपर्याप्त, श्वासोच्छ्वास पर्याप्ति से अपर्याप्त और भाषा मनःपर्याप्ति से अपर्याप्त के लिए एक वचन की अपेक्षा कदाचित् आहारक होता है और कदाचित् अनाहारक होता है कहना, बहुवचन की अपेक्षा ऊपर की शरीर अपर्याप्ति प्रमुख चार अपर्याप्तियों का विचार करते हुए नैरयिक, देव और मनुष्य में छह भंग कहने चाहिये, जो इस प्रकार हैं - १. कदाचित् सभी अनाहारक ही होते हैं २. कदाचित् सभी आहारक ही होते हैं ३. कदाचित् एक आहारक होता है और एक अनाहारक होता है ४. कदाचित् एक आहारक होता है और बहुत अनाहारक होते हैं ५. कदाचित् बहुत आहारक होते हैं और एक अनाहारक होता है और ६. कदाचित् बहुत आहारक होते हैं और बहुत अनाहारक होते हैं। शेष (नैरयिक, देव और मनुष्य के सिवाय) जीवों में जीवपद और एकेन्द्रिय को छोड़कर तीन भंग इस प्रकार पाये जाते हैं - १. सभी आहारक होते हैं २. अथवा बहुत आहारक होते हैं और एक अनाहारक होता है ३. अथवा बहुत आहारक और बहुत अनाहारक होते हैं। जीवपद और एकेन्द्रिय पदों में शरीर पर्याप्ति से अपर्याप्तइन्द्रिय पर्याप्ति से अपर्याप्त और श्वासोच्छ्वास पर्याप्ति से अपर्याप्त में भंगों का अभाव है क्योंकि वे आहारक भी होते हैं और अनाहारक भी होते हैं तथा आहारक और अनाहारक दोनों प्रकार के जीक सदैव बहुत होते हैं। भाषामनःपर्याप्ति से अपर्याप्त एकेन्द्रिय और विकलेन्द्रिय नहीं होते क्योंकि उनके यह पर्याप्ति असंभव है। भाषामन:पर्याप्ति पंचेन्द्रिय को ही होती है अत: बहुवचन की अपेक्षा भाषामन:पर्याप्ति से अपर्याप्त जीवों और पंचेन्द्रिय तिर्यंचों में तीन भंग कहने चाहिये। नैरयिकों देवों और मनुष्यों में पूर्ववत् छह भंग पाये जाते हैं। तीन विकलेन्द्रियों में चार पर्याप्तियाँ ही गिनी गई है। क्योंकि यहां पर भाषा और मनः पर्याप्ति को साथ ही गिना है। अर्थात् जिन दंडकों में मनः पर्याप्ति होती हैं उन दंडकों में ही भाषा पर्याप्ति मानी गई है। विकलेन्द्रियों में मनःपर्याप्ति नहीं होने से उनमें भाषा पर्याप्ति भी नहीं मानी है। . इस उद्देशक में भाषा मनः पर्याप्ति को एक ही माना है। तिर्यंच पंचेन्द्रिय के दण्डक में सम्मच्छिम तिर्यंच पंचेन्द्रिय भी सम्मिलित है। उनके भाषा पर्याप्ति होने से उनका भी भाषा मनः पर्याप्ति में ग्रहण कर लिया गया है। सम्मूर्छिम तिर्यंच पंचेन्द्रिय के अपर्याप्त शाश्वत हैं। अतः तिर्यंच पंचेन्द्रिय में आहार पर्याप्ति के अपर्याप्त को छोड़कर शेष सभी पर्याप्तियों में तीन भंग बताये गये हैं। Jain Education International For Personal & Private Use Only www.jainelibrary.org
SR No.004096
Book TitlePragnapana Sutra Part 04
Original Sutra AuthorN/A
AuthorNemichand Banthiya, Parasmal Chandaliya
PublisherAkhil Bharatiya Sudharm Jain Sanskruti Rakshak Sangh
Publication Year2008
Total Pages358
LanguageHindi, Sanskrit
ClassificationBook_Devnagari & agam_pragyapana
File Size8 MB
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