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________________ अट्ठाईसवाँ आहार पद - द्वितीय उद्देशक - शरीर द्वार २०३ ११. वेद द्वार सवेयए जीवेगिंदियवजो तियभंगो, इथिवेय-पुरिसवेयएसु जीवाइओ तियभंगो, णपुंसगवेयए य जीवेगिंदियवज्जो तियभंगो, अवेयए जहा केवलणाणी ॥दारं ११॥६५६॥ ___भावार्थ - सवेदी जीवों में जीव और एकेन्द्रिय को छोड़ कर तीन भंग होते हैं। स्त्रीवेद और पुरुषवेद वाले जीवों में तीन भंग होते हैं और नपुंसक वेदी में जीव और एकेन्द्रिय के सिवाय तीन भंग होते हैं। अवेदी जीवों का कथन केवलज्ञानी के समान समझना चाहिये॥ ग्यारहवां द्वार॥ - विवेचन - सामान्य वेद सहित सूत्र में एक वचन की अपेक्षा 'कदाचित् आहारक होता है और कदाचित् अनाहारक होता है' यह भंग समझना। बहुवचन की अपेक्षा जीवपद और एकेन्द्रियों को छोड़कर शेष स्थानों में तीन भंग तथा जीवपद और एकेन्द्रियों में 'बहुत आहारक होते हैं और बहुत अनाहारक होते हैं' इस भंग के अलावा शेष भंगों का अभाव समझना चाहिए क्योंकि वहाँ बहुत आहारक भी होते हैं और बहुत अनाहारक भी होते हैं। स्त्रीवेद सूत्र और पुरुषवेद सूत्र में एकवचन की अपेक्षा पूर्ववत् समझना किन्तु यहाँ नैरयिक, एकेन्द्रिय और विकलेन्द्रिय नहीं कहना चाहिए। क्योंकि वे नपुंसक होते हैं। बहुवचन में जीवादि पदों में प्रत्येक में तीन भंग कहना चाहिए। नपुंसक वेद में भी एक वचन की अपेक्षा पूर्ववत् समझना परन्तु यहाँ भवनपति, वाणव्यंतर, ज्योतिषी और वैमानिक नहीं कहना क्योंकि वे नपुंसक वेद रहित होते हैं। बहुवचन में जीव और एकेन्द्रिय के सिवाय शेष स्थानों में तीन भंग तथा जीवपद और पृथ्वी आणि एकेन्द्रिय पदों में पूर्व कहे अनुसार भंगों का अभाव होता है। वेद रहित (अवेदी) के लिए जैसा केवलज्ञानी के संबंध में कहा है वैसा ही एकवचन और बहुवचन में कहना चाहिये। जीव पद और मनुष्य पद के विषय में एकवचन में 'कदाचित् आहारक होता है और कदाचित् अनाहारक होता है' और बहुवचन की अपेक्षा जीव पद में 'बहुत आहारक भी होते हैं और बहुत अनाहारक भी होते हैं। मनुष्यों में तीन भंग समझना चाहिये। सिद्ध अवस्था में सभी अनाहारक ही होते हैं ऐसा कहना चाहिए। वेद द्वार समाप्त॥ १२.शरीर द्वार . ससरीरी जीवेगिंदियवजो तियभंगो, ओरालियसरीरीजीवमणूसेसु तियभंगो, अवसेसा आहारगा, णो अणाहारगा जेसिं अत्थि ओरालियसरीरं, वेउव्वियसरीरी आहारगसरीरी य आहारगा, णो अणाहारगा जेसिं अत्थि, तेयकम्मगसरीरी जीवेगिंदियवजो तियभंगो, असरीरी जीवा सिद्धा य णो आहारगा, अणाहारगा ॥दारं.१२॥ Jain Education International For Personal & Private Use Only www.jainelibrary.org
SR No.004096
Book TitlePragnapana Sutra Part 04
Original Sutra AuthorN/A
AuthorNemichand Banthiya, Parasmal Chandaliya
PublisherAkhil Bharatiya Sudharm Jain Sanskruti Rakshak Sangh
Publication Year2008
Total Pages358
LanguageHindi, Sanskrit
ClassificationBook_Devnagari & agam_pragyapana
File Size8 MB
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