SearchBrowseAboutContactDonate
Page Preview
Page 215
Loading...
Download File
Download File
Page Text
________________ २०२ प्रज्ञापना सूत्र ९. योग द्वार सजोगीसु जीवेगिंदियवज्जो तियभंगो। मणजोगी वइजोगी जहा सम्मामिच्छहिट्ठी, णवरं वइजोगो वइजोगी विगलिंदियाण वि। कायजोगीपु जीवेगिंदियवजो तियभंगो, अजोगी जीवमणूससिद्धा अणाहारगा॥ दारं ९॥ भावार्थ - सयोगियों में जीव और एकेन्द्रिय को छोड़कर तीन भंग होते हैं। मन योगी और वचन योगी के विषय में सम्यग्मिथ्यादृष्टि के समान कहना चाहिए। विशेषता यह है कि वचन योग विकलेन्द्रियों में भी कहना चाहिए। काययोगियों में जीव और एकेन्द्रिय को छोड़कर तीन भंग पाये जाते हैं। अयोगी, समुच्चय जीव, मनुष्य और सिद्ध होते हैं और वे अनाहारक ही होते हैं॥ नववां द्वार॥ विवेचन - योगद्वार में सामान्य से सयोगी सूत्र एक वचन की अपेक्षा पूर्ववत् समझना, बहुवचन की अपेक्षा जीव और एकेन्द्रिय को छोड़ कर शेष स्थानों में तीन भंग होते हैं। जीवपद और पृथ्वी आदि पदों में 'आहारक भी होते हैं और अनाहारक भी होते हैं' - यह भंग जानना। क्योंकि उन स्थानों में आहारक और अनाहारक दोनों प्रकार के जीव बहुत होते हैं। मनयोगी और वचनयोगी की वक्तव्यता सम्यग्- मिथ्यादृष्टि की तरह कहनी चाहिये अर्थात् एक वचन और बहुवचन में आहारक ही कहना किन्तु अनाहारक नहीं कहना किन्तु वचन योग विकलेन्द्रियों को भी होता है अत: उसका कथन करना चाहिए। काय योगी सूत्र भी एक वचन और बहुवचन में सयोगी सूत्र की तरह समझना चाहिए। __ अयोगी, मनुष्य और सिद्ध होते हैं अतः यहाँ तीन पद हैं - जीव पद, मनुष्य पद और सिद्ध। तीनों स्थानों में एकवचन और बहुवचन की अपेक्षा अनाहारक की होते हैं। योगद्वार समाप्त॥ १०. उपयोग द्वार सागाराणागारोवउत्तेसुजीवेगिंदियवजो तियभंगो, सिद्धा अणाहारगा॥दारं १०॥ भावार्थ - समुच्चय जीवों और एकेन्द्रियों को छोड़कर शेष साकार उपयोग वाले और अनाकार उपयोग वाले जीवों में तीन भंग कहने चाहिये। सिद्ध जीव अनाहारक ही होते हैं ॥ दसवां द्वार॥ विवेचन - साकार-ज्ञानोपयोग सूत्र में और अनाकार-दर्शनोपयोग सूत्र में एक वचन की अपेक्षा 'कदाचित् आहारक होता है और कदाचित् अनाहारक होता है' - इस प्रकार कहना। सिद्ध जीव अनाहारक ही होता है। बहुवचन की अपेक्षा जीवपद में और पृथ्वी आदि पदों में बहुत आहारक होते हैं और बहुत अनाहारक होते हैं' यह भंग समझना चाहिये। शेष स्थानों में तीन भंग होते हैं। सिद्ध अनाहारक ही होते हैं ॥ उपयोग द्वार समाप्त॥ Jain Education International For Personal & Private Use Only www.jainelibrary.org
SR No.004096
Book TitlePragnapana Sutra Part 04
Original Sutra AuthorN/A
AuthorNemichand Banthiya, Parasmal Chandaliya
PublisherAkhil Bharatiya Sudharm Jain Sanskruti Rakshak Sangh
Publication Year2008
Total Pages358
LanguageHindi, Sanskrit
ClassificationBook_Devnagari & agam_pragyapana
File Size8 MB
Copyright © Jain Education International. All rights reserved. | Privacy Policy