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________________ २०४ ******************************************* - प्रज्ञापना सूत्र भावार्थ - सशरीरी जीवों में समुच्चयजीव और एकेन्द्रिय को छोड़कर तीन भंग होते हैं । औदारिक शरीरी जीव और मनुष्यों में तीन भंग पाये जाते हैं शेष जीवों में जिनके औदारिक शरीर होता. है वे आहारक होते हैं, अनाहारक नहीं। वैक्रिय शरीरी और आहारक शरीरी आहारकं ही होते हैं अनाहारक नहीं, यह कथन उन्हीं के लिए कहना जिनके वैक्रिय शरीर और आहारक शरीर होता है। तैजस शरीरी और कार्मण शरीरी जीवों में समुच्चय जीव और एकेन्द्रियों को छोड़ कर तीन भंग कहने चाहिये। अशरीरी जीव और सिद्ध आहारक नहीं होते, अनाहारक होते हैं। बारहवां द्वार ॥ विवेचन - सशरीर सूत्र में एकवचन की अपेक्षा 'कदाचित् आहारक होता है और कदाचित् अनाहारक होता है।' बहुवचन की अपेक्षा जीव और एकेन्द्रिय के सिवाय शेष स्थानों में तीन भंग तथा जीवपद और पृथ्वी आदि एकेन्द्रिय पदों में पूर्व में कहे अनुसार भंगों का अभाव समझना चाहिए। - औदारिक शरीर सूत्र में एक वचन की अपेक्षा पूर्ववत् समझना परन्तु यहाँ नैरयिक, भवनपति, वाणव्यंतर, ज्योतिषी और वैमानिक का कथन नहीं करना चाहिये क्योंकि उनमें औदारिक शरीर नहीं होता । बहुवचन की अपेक्षा जीव और मनुष्य पदों में तीन-तीन भंग इस प्रकार समझने चाहिये १. 'सभी आहारक होते हैं ' को यह भंग जब कोई भी केवली समुद्घात को या अयोगी अवस्था प्राप्त नहीं हुआ होता है तब समझना २. अथवा 'सभी आहारक होते हैं और एक अनाहारक होता है' यह भंग जब एक जीव केवली समुद्घात या अयोगी अवस्था को प्राप्त होता है तब होता है ३. अथवा 'बहुत आहारक होते हैं और बहुत अनाहारकं होते हैं ' यह भंग जब बहुत जीव केवली समुद्घात को प्राप्त या अयोगी होते हैं तब होता है। शेष एकेन्द्रिय, बेइन्द्रिय, तेइन्द्रिय, चउरिन्द्रिय और तिर्यंच पंचेन्द्रिय आहारक ही होते हैं अनाहारक नहीं क्योंकि विग्रह गति से उत्तीर्ण हुए अर्थात् विग्रह गति के बाद वाले जीवों को ही औदारिक शरीर संभव है। वैक्रिय शरीरी और आहारक शरीरी सभी एक वचन और बहुवचन में आहारक ही होते हैं अनाहारक नहीं होते परन्तु यह कथन जिनको वैक्रिय और आहारक शरीर संभव है उनके लिए ही कहना अन्य जीवों के लिए नहीं। क्योंकि वैक्रिय शरीर नैरयिक, भवनपति, वायुकायिक, तिर्यंचपंचेन्द्रिय मनुष्य, वाणव्यंतर, ज्योतिषी और वैमानिकों को होता है और आहारक शरीर मनुष्यों को ही होता है । तैजस कार्मण शरीरी सूत्र में एक वचन की अपेक्षा 'कदाचित् आहारक होता है और कदाचित् अनाहारक होता है' यह भंग कहना । बहुवचन की अपेक्षा जीव और एकेन्द्रिय के सिवाय शेष स्थानों में तीन भंग तथा जीव पद और एकेन्द्रियों में अन्य भंगों का अभाव समझना । अशरीरी-शरीर रहित सिद्ध होते हैं उनमें दो पद हैं- जीव और सिद्ध । दोनों पदों में एकवचन और बहुवचन की अपेक्षा अनाहारक ही होते हैं। शरीर द्वार समाप्त ॥ Jain Education International ****************¤¤¤¤¤¤¤¤¤¤¤¤¤¤¤¤¤** For Personal & Private Use Only - www.jalnelibrary.org
SR No.004096
Book TitlePragnapana Sutra Part 04
Original Sutra AuthorN/A
AuthorNemichand Banthiya, Parasmal Chandaliya
PublisherAkhil Bharatiya Sudharm Jain Sanskruti Rakshak Sangh
Publication Year2008
Total Pages358
LanguageHindi, Sanskrit
ClassificationBook_Devnagari & agam_pragyapana
File Size8 MB
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