________________
२००
प्रज्ञापना सूत्र
८.ज्ञानद्वार णाणी जहा सम्महिट्ठी। आभिणिबोहियणाणी सुयणाणी य बेइंदियतेइंदियचउरिदिएसु छब्भंगा अवसेसेसु जीवाइओ तियभंगो जेसिं अत्थि।
भावार्थ - ज्ञानी सम्यग्दृष्टि के समान समझना चाहिये। आभिनिबोधिक ज्ञानी और श्रुतज्ञानी बेइन्द्रिय, तेइन्द्रिय और चउरिन्द्रिय जीवों में छह भंग पाये जाते हैं। शेष जीवों के विषय में जिन में मतिज्ञान और श्रुतज्ञान होता है उनमें तीन भंग होते हैं।
विवेचन - सम्यग् ज्ञानी की वक्तव्यता सम्यग्दृष्टि के समान समझनी चाहिए। एकेन्द्रिय जीव मिथ्यादृष्टि होने के कारण अज्ञानी होते हैं। अतः एकेन्द्रिय के पांच दंडकों को छोड़कर शेष १९ दंडकों में एक वचन की अपेक्षा ज्ञानी कदाचित् आहारक होता है और कदाचित् अनाहारक होता है। बहुवचन की अपेक्षा सज्ञानी जीव आहारक भी होते हैं और अनाहारक भी होते हैं अतः उनमें तीन भंग पाये जाते हैं किन्तु तीन विकलेन्द्रिय जीवों में छह भंग होते हैं। सिद्ध जीव अनाहारक होते हैं। ____एक वचन की अपेक्षा मतिज्ञानी और श्रुतज्ञानी में एक भंग पूर्ववत् समझना चाहिये, बहुवचन की अपेक्षा तीन विकलेन्द्रियों में छह भंग होते हैं। एकेन्द्रियों में मतिज्ञान और श्रुतज्ञान का अभाव होता है अतः एकेन्द्रियों को छोड़ कर शेष मतिज्ञानी और श्रुतज्ञानी जीवों में तीन-तीन भंग कहने चाहिये -
१. सभी आहारक होते हैं २. अथवा बहुत आहारक होते हैं और एक अनाहारक होता है ३. अथवा . . बहुत आहारक होते हैं और बहुत अनाहारक होते हैं।
ओहिणाणी पंचिंदियतिरिक्खजोणिया आहारगा, णो अणाहारगा, अवसेसेसु जीवाइओ तियभंगो जे.सं अस्थि ओहिणाणं, मणपजवणाणी जीवा मणूसा य एगत्तेण वि पहत्तेण वि आहारगा, णो अणाहारगा। केवलणाणी जहा णोसण्णीणोअसण्णी ॥दारं ८-१॥
भावार्थ - अवधिज्ञानी पंचेन्द्रिय तिर्यच आहारक होते हैं, अनाहारक नहीं। शेष जीवों में जिनमें अवधिज्ञान पाया जाता है उनमें तीन भंग होते हैं। मन:पर्यवज्ञानी समुच्चय जीव और मनुष्य एक वचन और बहुवचन की अपेक्षा से आहारक होते हैं अनाहारक नहीं। केवलज्ञानी की वक्तव्यता नोसंज्ञी नो असंज्ञी के समान समझनी चाहिये।
विवेचन - अवधिज्ञानी में एक वचन की अपेक्षा पूर्ववत् समझ लेना चाहियो। बहुवचन की अपेक्षा अवधिज्ञानी पंचेन्द्रिय तिर्यच आहारक ही होते हैं किन्तु अनाहारक नहीं होते क्योंकि पंचेन्द्रिय तिर्यचों को अनाहारकपना विग्रह गति में होता है और उस समय उनमें अवधिज्ञान नहीं होता। पंचेन्द्रिय
॥
Jain Education International
For Personal & Private Use Only
www.jainelibrary.org