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ट्ठाईसवाँ आहार पद - द्वितीय उद्देशक दृष्टि द्वार
५. दृष्टि द्वार
समदिट्ठी णं भंते! जीवे किं आहारए अणाहारए ?
गोयमा ! सिय आहारए सिय अणाहारए एवं जाव वेमाणिए णवरं एगिंदिया णो पुच्छिजंति ।
सम्मद्दिट्ठी णं भंते! जीवा किं आहारगा अणाहारगा ?
गोयमा ! आहारगा वि, अणाहारगा वि ।
बेइंदिया तेइंदिया चउरिंदिया छब्धंगा, सिद्धा अणाहारगा, अवसेसाणं तियभंगो, मिच्छादिट्ठीसु जीवेगिंदियवज्जो तियभंगो।
भावार्थ - - प्रश्न हे भगवन् ! सम्यग्दृष्टि आहारक होता है या अनाहारक ?
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उत्तर - हे गौतम! सम्यग्दृष्टि जीव कदाचित् आहारक होता है और कदाचित् अनाहारक होता है। इसी प्रकार यावत् वैमानिक देवों तक कहना चाहिए, किन्तु एकेन्द्रियों की पृच्छा नहीं करनी चाहिए। बहुवचन की अपेक्षा
प्रश्न- हे भगवन् ! बहुत से सम्यग् दृष्टि जीव क्या आहारक होते हैं या अनाहारक होते हैं ? उत्तर - हे गौतम बहुत से सम्यग् दृष्टि जीव आहारक भी होते हैं और बहुत से सम्यग्दृष्टि जीव अनाहारक भी होते हैं ।
सम्यग्दृष्टि बेइन्द्रिय, तेइन्द्रिय और चउरिन्द्रिय जीवों में छह भंग होते हैं। सिद्ध अनाहारक होते. हैं। शेष सभी सम्यग्दृष्टि जीवों में तीन भंग होते हैं। समुच्चय जीव और एकेन्द्रिय जीवों को छोड़ कर शेष सभी मिथ्यादृष्टि जीवों में तीन भंग होते हैं।
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विवेचन - यहाँ सम्यग्दृष्टि औपशमिक सम्यक्त्व, सास्वादन सम्यक्त्व, क्षायोपशमिक सम्यक्त्व, वेदक सम्यक्त्व या क्षायिक सम्यक्त्व की अपेक्षा समझना चाहिए। वेदक सम्यग्दृष्टि, क्षायिक सम्यक्त्व को प्राप्त करते हुए सम्यक्त्व मोहनीय के चरम समयवर्ती पुद्गलों के अनुभव के समय होती है यानी क्षायिक सम्यक्त्व के एक समय पहले होती है।
सम्यग्दृष्टि समुच्चय जीव आदि पदों में एक वचन की अपेक्षा 'कदाचित् एक आहारक और एक अनाहारक' यह एक भंग और बहुवचन की अपेक्षा 'बहुत आहारक और बहुत अनाहारक' यह एक भंग होता है। इनमें एकेन्द्रियों का कथन नहीं करना चाहिये क्योंकि उन में सम्यग्दृष्टि का अभाव होता है । बेइन्द्रिय, तेइन्द्रिय और चउरिन्द्रिय सम्यग्दृष्टि जीवों में पूर्व में कहे अनुसार छह भंग होते हैं । बेइन्द्रिय आदि जीवों में अपर्याप्तावस्था में सास्वादन सम्यक्त्व पाई जाती है इस कारण वे सम्यग्दृष्टि
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