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प्रज्ञापना सूत्र
होते हैं। सिद्धों में क्षायिक सम्यक्त्व होती है और वे अनाहारक होते हैं। शेष नैरयिक, भवनपति, तिर्यंच पंचेन्द्रिय मनुष्य, वाणव्यंतर, ज्योतिषी और वैमानिक देवों में तीन-तीन भंग इस प्रकार होते हैं -
१. कदाचित् सभी आहारक होते हैं २. कदाचित् बहुत आहारक होते हैं और एक अनाहारक होता है ३. कदाचित् बहुत आहारक और बहुत अनाहारक होते हैं। सभी मिथ्यादृष्टि जीवों में जीव और एकेन्द्रिय को छोड़ कर तीन भंग पाए जाते हैं । समुच्चय जीव और एकेन्द्रिय में बहुत आहारक और बहुत अनाहारक रूप एक ही भंग पाता है। यहां सिद्धों का कथन नहीं करना चाहिये क्योंकि उनमें मिथ्यादृष्टि का अभाव है।
सम्मामिच्छादिट्ठी णं भंते!० किं आहारए अणाहारए ?
गोयमा ! आहारए, णो अणाहारए, एवं एगिंदियविगलिंदियवज्जं जावं वेमाणिए, एवं पुहुत्तेण वि ॥ दारं ५ ॥ ६५२ ॥
भावार्थ - प्रश्न - हे भगवन् ! सम्यग्मिथ्यादृष्टि जीव आहारक होता है या अनाहारक ?. उत्तर हे गौतम! सम्यग्मिथ्यादृष्टि जीव आहारक होता है, अनाहारक नहीं। इसी प्रकार एकेन्द्रिय और विकलेन्द्रिय को छोड़ कर यावत् वैमानिक तक कहना चाहिए। बहुवचन की अपेक्षा भी इसी प्रकार समझना चाहिये ॥ पंचम द्वार ॥
विवेचन - सम्यग्मिथ्यादृष्टि जीव आहारक होता है अनाहारक नहीं, क्योंकि संसारी जीवों में अनाहारकपना विग्रह गति में होता है और सम्यग्मिथ्यादृष्टि विग्रह गति में नहीं होती क्योंकि उस अवस्था में कोई भी जीव काल नहीं करता। कहा भी है- 'सम्मामिच्छो ण कुणइ कालं' - सम्यग् मिथ्यादृष्टि काल नहीं करता। इसलिए सम्यग्मिथ्यादृष्टि जीव को विग्रह गति के अभाव के कारण अनाहारकपना नहीं है। इसी प्रकार क्रम से चौबीस दण्डकों के जीवों के विषय में कहना किन्तु एकेन्द्रिय और विकलेन्द्रिय जीवों का कथन नहीं करना चाहिये क्योंकि उनमें सम्यग्मिथ्यादृष्टि संभव नहीं है । दृष्टि द्वार समाप्त ॥
६. संयत द्वार संजणं भंते! जीवे किं आहारए अणाहारए ?
गोयमा ! सिय आहारए, सिय अणाहारए, एवं मणूसे वि, पुहुत्तेणं तियभंगो । असंजए पुच्छा ? सिय आहारए, सिय अणाहारए, पुहुत्तेणं जीवेगिंदियवज्जो तियभंगो। भावार्थ- प्रश्न - हे भगवन् ! संयत जीव आहारक होता है या अनाहारक ?
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