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अट्ठाईसवाँ आहार पद - द्वितीय उद्देशक - लेश्या द्वार
बहुवचन की अपेक्षा नोसंज्ञी - नोअसंज्ञी जीव आहारक भी होते हैं और अनाहारक भी होते हैं क्योंकि बहुत से केवलज्ञानी सदैव समुद्घात आदि अवस्था रहित होते हैं अतः आहारक होते हैं और सिद्ध हमेशा बहुत होते हैं और वे अनाहारक ही होते हैं। मनुष्यों में तीन भंग इस प्रकार समझने चाहिये - १. जब कोई भी केवली समुद्घात अवस्था में नहीं होता तब सभी आहारक होते हैं यह प्रथम भंग २. जब एक केवली समुद्घात आदि अवस्था को प्राप्त होता है तब सभी आहारक होते हैं और एक अनाहारक होता है यह द्वितीय भंग ३. जब बहुत से केवली समुद्घात आदि अवस्था को प्राप्त होते हैं तब बहुत से आहारक भी होते हैं और बहुत से अनाहारक भी होते हैं, यह तीसरा भंग घटित होता है । यह तृतीय द्वार समाप्त ॥
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४. लेश्या द्वार
सलेसे णं भंते! जीवे किं आहारए अणाहारए ?
गोयमा ! सिय आहारए, सिय अणाहारए, एवं जाव वेमाणिए ।
सलेसा णं भंते! जींवा किं आहारगा अणाहारगा ?
गोयमा! जीवेगिंदियवज्जो तियभंगो, एवं कण्हलेसा वि णीललेसा वि काउलेसा वि जीवेगिंदियवज्जो तियभंगो ।
भावार्थ - प्रश्न - हे भगवन् ! सलेश्य - लेश्या सहित जीव आहारक होता है या अनाहारक ? उत्तर - हे गौतम! सलेश्य जीव कदाचित् आहारक होता है और कदाचित् अनाहारक होता है । . इसी प्रकार यावत् वैमानिक तक समझना चाहिये ।
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प्रश्न - हे भगवन् ! बहुत से सलेश्य जीव आहारक होते हैं या अनाहारक होते हैं ?
उत्तर - हे गौतम! जीव और एकेन्द्रिय को छोड़कर इनके तीन भंग होते हैं इसी प्रकार कृष्णलेशी नीलेशी और कापोतलेशी के विषय में भी जीव और एकेन्द्रिय को छोड़कर तीन भंग कहने चाहिये ।
विवेचन प्रस्तुत सूत्र में सलेशी जीवों में आहारकता अनाहारकता के विषय में निरूपण किया गया है। समुच्चय जीव की तरह सलेशी जीव भी कदाचित् आहारक होता है और कदाचित् अनाहारक होता है क्योंकि विग्रह गति, केवली समुद्घात और शैलेशी अवस्था में जीव अनाहारक और शेष अवस्था में आहारक होता है। सिद्ध जीव लेश्या रहित होता है अतः उसके विषय में यह सूत्र नहीं कहना चाहिए ।
बहुवचन की अपेक्षा समुच्चय जीव और एकेन्द्रियों में 'आहारक भी होते हैं और अनाहारक भी होते हैं' यह एक ही भंग होता है क्योंकि दोनों प्रकार के जीव सदैव बहुत होते हैं। शेष नैरयिक आदि
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