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________________ १९० प्रज्ञापना सूत्र , भावार्थ - प्रश्न - हे भगवन्! बहुत से संज्ञी जीव आहारक होते हैं या अनाहारक? उत्तर - हे गौतम! जीवादि के विषय में तीन भंग वैमानिक तक समझना चाहिये। विवेचन - बहुवचन की अपेक्षा जीवपद और नैरयिक आदि पदों में प्रत्येक के तीन भंग इस प्रकार कहने चाहिये - १. सभी आहारक होते हैं २. सभी आहारक और एक अनाहारक होता है अथवा ३. बहुत से आहारक और बहुत से अनाहारक होते हैं। सामान्य से जीवपद में प्रथम भंग होता है क्योंकि सर्वलोक की अपेक्षा संजीपने जीव निरन्तर उत्पन्न होते हैं जब एक संज्ञी जीव विग्रहगति को प्राप्त होता है तब द्वितीय भंग और जब बहुत संज्ञी जीव विग्रह गति को प्राप्त होते हैं तब तीसरा भंग होता है। इस प्रकार नैरयिक आदि पदों के विषय में भी भंगों का विचार करना चाहिए। असण्णी णं भंते! जीवे किं आहारए अणाहारए? गोयमा! सिय आहारए, सिय अणाहारए, एवं णेरइए जाव वाणमंतरे। जोइसियवेमाणिया ण पच्छिज्जति।। असण्णी णं भंते! जीवा किं आहारगा अणाहारगा? गोयमा! आहारगा वि अणाहारगा वि, एगो भंगो। भावार्थ - प्रश्न - हे भगवन्! असंज्ञी जीव आहारक होता है या अनाहारक? उत्तर - हे गौतम! असंज्ञी जीव कदाचित् आहारक होता है और कदाचित् अनाहारक होता है। इसी प्रकार नैरयिक से लेकर वाणव्यंतर तक कहना चाहिए। ज्योतिषी और वैमानिक के विषय में प्रश्न नहीं करना चाहिए। प्रश्न - हे भगवन् ! बहुत से असंज्ञी जीव आहारक होते हैं या अनाहारक? उत्तर - हे गौतम! बहुत से असंज्ञी जीव आहारक भी होते हैं और अनाहारक भी होते हैं। इनमें एक ही भंग होता है। . विवेचन - असंज्ञी जीव विग्रह गति में अनाहारक होता है और शेष समय में आहारक होता है। इसलिए कहा है कि कदाचित् आहारक होता है और कदाचित् अनाहारक होता है। इसी प्रकार वाणव्यंतर तक समझना चाहिए। नैरयिक, भवनपति और वाणव्यंतर जीव असंझी से और संज्ञी से आकर उत्पन्न होते हैं किन्तु ज्योतिषी और वैमानिक देव संज्ञी जीवों से ही आकर उत्पन्न होते हैं, असंज्ञी से आकर उत्पन्न नहीं होते इसलिए उनमें असंज्ञीपना नहीं होने के कारण सूत्रकार ने कहा है - 'जोइसिय वेमाणिया ण पुच्छिज्जति' - ज्योतिषी और वैमानिक के विषय में प्रश्न नहीं करना चाहिये। बहुवचन की अपेक्षा सामान्य जीव पद में एक ही भंग होता है - 'आहारक भी होते हैं और Jain Education International For Personal & Private Use Only www.jainelibrary.org
SR No.004096
Book TitlePragnapana Sutra Part 04
Original Sutra AuthorN/A
AuthorNemichand Banthiya, Parasmal Chandaliya
PublisherAkhil Bharatiya Sudharm Jain Sanskruti Rakshak Sangh
Publication Year2008
Total Pages358
LanguageHindi, Sanskrit
ClassificationBook_Devnagari & agam_pragyapana
File Size8 MB
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