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अट्ठाईसवाँ आहार पद - द्वितीय उद्देशक- संज्ञी द्वार
प्रश्न - हे भगवन् ! बहुत नोभवसिद्धिक नोअभवसिद्धिक जीव आहारक होते हैं या अनाहारक ? उत्तर - हे गौतम! बहुत से नोभवसिद्धिक नोअभवसिद्धिक जीव आहारक नहीं होते हैं किन्तु अनाहारक होते हैं इसी प्रकार बहुत से सिद्ध जीवों के विषय में भी समझना चाहिए ॥ द्वितीय द्वार ॥
विवेचन - नोभवसिद्धिक- जो भवसिद्धिक नहीं हैं और नोअभवसिद्धिक- जो अभवसिद्धिक भी नहीं हैं ऐसे जीव सिद्ध ही हो सकते हैं। वे भवसिद्धिक नहीं क्योंकि वे भव-संसार से रहित हैं। रूढि से जो सिद्धि गमन के अयोग्य हैं वे अभवसिद्धिक कहलाते हैं इसलिए वे अभवसिद्धिक भी नहीं क्योंकि वे सिद्धि पद को प्राप्त हो चुके हैं। ऐसा होने से नोभवसिद्धिक नोअभवसिद्धिक के विचार में दो ही पद हैं - जीवपद और सिद्धिपद । दोनों स्थानों पर एक वचन की अपेक्षा 'अनाहारक होता है' यह एक ही भंग और बहुवचन में भी 'सभी अनाहारक होते हैं। यह एक ही भंग होता है। यह दूसरा द्वार पूर्ण हुआ ।
३. संज्ञी द्वार
सणी णं भंते! जीवे किं आहारए अणाहारए ?
गोयमा ! सिय आहारए, सिय अणाहारए, एवं जाव वेमाणिए, णवरं fiदियविगलिंदिया णो पुच्छिज्जति ।
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भावार्थ - प्रश्न - हे भगवन् ! संज्ञी जीव आहारक होता है या अनाहारक ?
उत्तर - हे गौतम! संज्ञी जीव कदाचित् आहारक होता है और कदाचित् आनाहारक होता है । इसी प्रकार यावत् वैमानिक पर्यन्त समझना चाहिए किन्तु विशेषता यह है कि एकेन्द्रिय और विकलेन्द्रिय जीवों के विषय में प्रश्न नहीं करना चाहिए।
विवेचन जो जीव मन वाले होते हैं वे संज्ञी कहलाते हैं। मन रहित जीव असंज्ञी होते हैं। संज्ञी
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जीव विग्रह गति में अनाहारक होते हैं और शेष समय में आहारक होते हैं।
शंका- विग्रह गति में मन नहीं होता फिर भी उन्हें अनाहारक कैसे कहा है ?
समाधान - विग्रहगति को प्राप्त होने पर भी जो जीव संज्ञी के आयुष्य का वेदन कर रहा है वह मन के अभाव में भी संज्ञी कहलाता है। जैसे कि नरक के आयुष्य का वेदन करने से विग्रहगति प्राप्त नरकगामी जीव नैरयिक ही कहलाता है । अतः संज्ञी होने पर भी अनाहारक होने में कोई दोष नहीं है । इसी प्रकार वैमानिकों तक समझना चाहिए किन्तु एकेन्द्रियों एवं विकलेन्द्रियों के विषय में प्रश्न नहीं करना चाहिए क्योंकि वे मन रहित होने से संज्ञी नहीं हैं।
सणी णं भंते! जीवा किं आहारगा अणाहारगा ? गोयमा ! जीवाईओ तियभंगो जाव वेमाणिया ।
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