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________________ १८८ प्रज्ञापना सूत्र उत्तर - हे गौतम! भवसिद्धिक जीव कदाचित् आहारक होता है, कदाचित् अनाहारक होता है, इसी प्रकार यावत् वैमानिक तक समझना चाहिए। विवेचन - संख्यात, असंख्यात या अनन्तभवों में जिनकी सिद्धि होती है वे भविसिद्धिक (भव्य) कहलाते हैं। भवसिद्धिक जीव कदाचित् आहारक होते हैं और कदाचित् अनाहारक होते हैं। विग्रहगति आदि अवस्था में भवसिद्धिक जीव अनाहारक और शेष अवस्था में आहारक होते हैं। इसी प्रकार चौबीसों दण्डक के जीवों के विषय में समझना चाहिए। यहाँ सिद्ध जीव का कथन नहीं किया है क्योंकि मोक्षपद को प्राप्त हो जाने के कारण उनमें भवसिद्धिकपना नहीं है। अब बहुवचन की अपेक्षा विचार करते हैं - भवसिद्धिया णं भंते! जीवा किं आहारगा अणाहारगा? गोयमा! जीवेगिंदियवज्जो तियभंगो, अभवसिद्धिए वि एवं चेव। भावार्थ - प्रश्न - हे भगवन् ! बहुत भवसिद्धिक जीव आहारक होते हैं या अनाहारक? .. उत्तर - हे गौतम! बहुत भवसिद्धिक जीवों के विषय में समुच्चय जीव और एकेन्द्रिय को छोड़कर तीन भंग कहने चाहिये। विवेचन - यहां भी आहारक द्वार की तरह जीव पद के विषय में और एकेन्द्रियों के विषय में प्रत्येक की अपेक्षा दोनों स्थानों में बहुवचन से 'आहारक भी होते हैं और अनाहारक भी होते हैं। यह एक ही भंग पाया जाता है। शेष नैरयिक आदि स्थानों में तीन भंग होते हैं - १. सभी आहारक ही होते हैं और एक भी अनाहारक नहीं होता २. अथवा सभी आहारक होते हैं और एक अनाहारक होता है ३. अथवा बहुत आहारक होते हैं और बहुत अनाहारक भी होते हैं। जिस प्रकार एक वचन और बहुवचन की अपेक्षा भवसिद्धिक जीवों के आहारक और अनाहारकपने का कथन किया है उसी प्रकार अभवसिद्धिक के विषय में भी समझ लेना चाहिए। अभवसिद्धिक जीव वे हैं जो मोक्ष गमन के योग्य नहीं हैं। णोभवसिद्धिए णोअभवसिद्धिए णं भंते! जीवे किं आहारए अणाहारए? गोयमा! णो आहारए, अणाहारए एवं सिद्धे वि। णोभवसिद्धियणोअभवसिद्धिया णं भंते! जीवा किं आहारगा अणाहारगा? गोयमा! णो आहारगा, अणाहारगा, एवं सिद्धा वि॥दारं २॥ भावार्थ-प्रश्न - हे भगवन्! नोभवसिद्धिक-नोअभवसिद्धिक जीव आहारक होता है या अनाहारक? उत्तर - हे गौतम! नोभवसिद्धिक-नो अभवसिद्धिक जीव आहारक नहीं होता, अनाहारक होता है। इसी प्रकार सिद्ध जीव के विषय में समझना चाहिए। Jain Education International For Personal & Private Use Only www.jainelibrary.org
SR No.004096
Book TitlePragnapana Sutra Part 04
Original Sutra AuthorN/A
AuthorNemichand Banthiya, Parasmal Chandaliya
PublisherAkhil Bharatiya Sudharm Jain Sanskruti Rakshak Sangh
Publication Year2008
Total Pages358
LanguageHindi, Sanskrit
ClassificationBook_Devnagari & agam_pragyapana
File Size8 MB
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