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अट्ठाईसवाँ आहार पद - द्वितीय उद्देशक - भव्य द्वार
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निगोदों का असंख्यातवां भाग प्रतिसमय विग्रहगति में वर्तता है और वे अनाहारक होते हैं इसलिए अनाहारक जीव भी बहुत कहे गये हैं।
बहुत से नैरयिक जीवों में आहारक-अनाहारक के तीन भंग कहे हैं जो इस प्रकार है
१. सभी नैरयिक आहारक होते हैं - किसी समय सभी नैरयिक आहारक ही होते हैं एक भी नैरयिक अनाहारक नहीं होता, ऐसा इसलिए संभव है कि नैरयिकों में उपषात का विरह काल होता है। नैरयिकों का उपपात विरह बारह मुहूर्त का होता है और उस काल में पूर्व में उत्पन्न हुए एवं विग्रह. गति को प्राप्त हुए नैरयिक भी आहारक होते हैं और दूसरा कोई नया नैरयिक उस समय उत्पन्न नहीं होने से अनाहारक नहीं होता।
__२. बहुत से नैरयिक आहारक होते हैं और कोई एक नैरयिक अनाहारक होता है - नरक में कदाचित् एक जीव उत्पन्न होता है, कदाचित् दो, कदाचित् तीन, चार यावत् संख्यात या असंख्यात जीव उत्पन्न होते हैं अतः जब एक जीव उत्पन्न होता है और वह भी विग्रह गति प्राप्त होने से अनाहारक होता है उसके अलावा सभी पूर्वोत्पत्र नैरयिक होने से आहारक होते हैं तब यह दूसरा भंग घटित होता है।
३. बहुत से नैरयिक आहारक और बहुत से अनाहारक - यह तीसरा भंग जब बहुत नैरयिक विग्रह गति से नैरयिक रूप में उत्पन्न हो रहे हों तब घटित होता है। इन तीन भंगों के अलावा नैरयिकों में कोई भंग संभव नहीं हैं क्योंकि नैरयिकों में आहारकपद हमेशा बहुवचन का ही विषय होता है। इसी प्रकार असुरकुमार से लेकर स्तनितकुमार रक और बेइन्द्रिय से लगाकर वैमानिक पर्यन्त तीन तीन भंग समझना चाहिये क्योंकि उपपात का अन्तर होने से प्रथम भंग और एक दो आदि संख्या से उत्पन्न होने से शेष दो भंग संभव है। किन्तु पृथ्वीकायिक आदि एकेन्द्रिय जीवों में आहारक भी होते हैं और अनाहारक भी होते हैं. यह एक ही भंग होता है क्योंकि पृथ्वीकाय, अप्काय, तेउकाय और वायुकाय में प्रति समय असंख्यात और वनस्पतिकाय में प्रतिसमय अनन्त जीव विग्रहगति से उत्पन्न होने से अनाहारक पद में सदैव बहुवचन संभव है इसीलिए सूत्रकार ने "एवं जाव वेमाणिया णवरं एगिंदिया जहा जीवा" कहा है। ___ सिद्धों में अनाहारक होते हैं-यह एक ही भंग समझना चाहिए क्योंकि सर्व शरीरों का नाश हो जाने से उनमें आहार संभव नहीं है और वे सदैव बहुत ही होते हैं। यह प्रथम आहार द्वार समाप्त हुआ।
२. भव्य द्वार भवसिद्धिए णं भंते! जीवे किं आहारए अणाहारए? गोयमा! सिय आहारए, सिय अणाहारए, एवं जाव वेमाणिए। भावार्थ - प्रश्न - हे भगवन् ! भवसिद्धिक जीव आहारक होता है या अनाहारक?
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