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विग्ग गमावण्णा केवलिणो समोहया अजोगी य।
सिद्धा य अणाहारा सेसा आहारगा जीवा ॥
भावार्थ:
प्रज्ञापना सूत्र
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• जिस प्रकार समुच्चय रूप से एक जीव के आहारक और अनाहारक के विषय में कहा है उसी प्रकार नैरयिक से लगा कर वैमानिक पर्यन्त तक सभी जीव कदाचित् आहारक और कदाचित् अनाहारक होते हैं। अब बहुवचन की अपेक्षा जीवों के आहारक एवं अनाहारक के विषयक की गई पृच्छा इस प्रकार है -
जीवा णं भंते! किं आहारंगा अणाहारगा ? गोयमा ! आहारगा वि अणाहारगा वि ।
भावार्थ- प्रश्न हे भगवन् ! बहुत जीव आहारक होते हैं या अनाहारक ?
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उत्तर - हे गौतम! बहुत जीव आहारक भी होते हैं, अनाहारक भी होते हैं ।
रइयाणं पुच्छा ?
गोयमा ! सव्वे वि ताव होज्जा आहारगा १, अहवा आहारगा य अणाहारए य २, अहवा आहारगा य अणाहारगा य ३, एवं जाव वेमाणिया, णवरं एगिंदिया जहा जीवा ।
- प्रश्न - हे भगवन् ! बहुत नैरयिक आहारक होते हैं या अनाहारक ?
उत्तर - हे गौतम! १. वे सभी आहारक होते हैं २. अथवा बहुत आहारक और कोई एक अनाहारक होता है अथवा ३. बहुत नैरयिक आहारक और बहुत अनाहारक होते हैं। इसी प्रकार यावत् वैमानिक तक समझना, विशेषता यह है कि एकेन्द्रिय जीवों का कथन बहुत जीवों के समान समझना चाहिये ।
सिद्धाणं पुच्छा ?
गोयमा! णो आहारगा, अणाहारगा ॥ दारं १ ॥
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भावार्थ - प्रश्न - हे भगवन् ! बहुत सिद्ध आहारक होते हैं या अनाहारक ?
उत्तर - हे गौतम! सिद्ध आहारक नहीं होते, वे अनाहारक ही होते हैं | प्रथम द्वार ॥
विवेचन प्रस्तुत सूत्र में कहा गया है कि बहुत से जीव आहारक भी होते हैं और अनाहारक भी होते हैं। विग्रह गति के अलावा शेष समय में सभी संसारी जीव आहारक ही होते हैं, विग्रहगति तो कहीं कभी किसी जीव की होती है। यद्यपि विग्रह गति सर्वकाल में पाई जाती है। किन्तु वह भी प्रतिनियत-अमुक जीवों की ही होती है। इसलिए आहारक जीव बहुत होते हैं। सिद्ध तो अनाहारक ही होते हैं जो सदैव होते हैं और वे अभव्यों से अनन्तगुणा हैं। सदैव समुच्चय
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