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अट्ठावीसइमे आहार पए-बीओ उद्देसओ अट्ठाइसवाँ आहार पद - द्वितीय उद्देशक
आहार पद के प्रथम उद्देशक की व्याख्या करने के पश्चात् सूत्रकार दूसरे उद्देशक के प्रारम्भ में विषय निरूपण करने वाली संग्रहणी गाथा कहते हैं जो इस प्रकार है -
आहार भविय सण्णी लेसा दिट्ठी य संजय कसाए। णाणे जोगुवओगे वेदे (वेए) यसरीर पजत्ती।
- आहार पद के द्वितीय उद्देशक में तेरह द्वार इस प्रकार हैं - १. आहार २. भव्य ३. संज्ञी ४. लेश्या ५. दृष्टि ६. संयत ७. कषाय ८. ज्ञान ९. योग १०. उपयोग ११. वेद १२. शरीर १३. पर्याप्ति।
विवेचन - औदारिक, वैक्रिय और आहारक इन तीन शरीरों के द्वारा पुद्गलों को ग्रहण करना 'आहार' कहलाता है। आहार पद के द्वितीय उद्देशक में तेरह द्वारों से आहार का वर्णन किया गया है।
१. आहार द्वार जीवे णं भंते! किं आहारए अणाहारए? गोयमा! सिय आहारए, सिरा अणाहारए, एवं णेरइए जाव वेमाणिए। भावार्थ - प्रश्न - हे भगवन् ! जीव आहारक है या अनाहारक?
उत्तर - हे गौतम! जीव कथंचित् (कभी) आहारक है और कथंचित् अनाहारक है। नैरयिक से लेकर यावत् वैमानिक तक इसी प्रकार समझना चाहिए।
सिद्धेणं भंते! किं आहारए अणाहारए? गोयमा! णो आहारए, अणाहारए। भावार्थ - प्रश्न - हे भगवन्! सिद्ध जीव आहारक होता है या अनाहारक? उत्तर - हे गौतम! सिद्ध जीव आहारक नहीं होता, अनाहारक होता है।
विवेचन - प्रस्तुत सूत्र में जीव के आहारक और अनाहारक विषयक प्रश्न के उत्तर में प्रभु फरमाते हैं कि जीव स्यात्-कदाचित् आहारक होता है और कदाचित् अनाहारक होता है। क्योंकि विग्रह गति, केवली समुद्घात, शैलेशी अवस्था (चौदहवें अयोगी केवली गुणस्थान) और सिद्ध अवस्था में लीव अनाहारक होता है और शेष सभी अवस्थाओं में जीव आहारक होता है। कहा भी है
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