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________________ बाईसवाँ क्रियापद - क्रिया भेद-प्रभेद ३ विवेचन - प्राद्वेषिकी (पाउसिया) क्रिया - मत्सरभाव रूप जीव के अकुशल परिणाम विशेष को प्रद्वेष कहते हैं। प्रद्वेष में अथवा प्रद्वेष में होने वाली क्रिया प्राद्वेषिकी क्रिया कहलाती है । स्व, पर और उभय के भेद से प्राद्वेषिकी क्रिया तीन प्रकार की हैं । स्व प्राद्वेषिकी - अपनी आत्मा पर प्रद्वेष । करना, अकुशल परिणाम रखना। पर प्राद्वेषिकी - दूसरे पर प्रद्वेष करना। उभय प्राद्वेषिकी- अपनी आत्मा पर तथा दूसरे पर प्रद्वेष करना। पारियावणिया णं भंते! किरिया कइविहा पण्णत्ता? गोयमा! तिविहा पण्णत्ता। तंजहा - जेणं अप्पणो वा परस्स वा तदुभयस्स वा अस्सायं वेयणं उदीरेइ, सेत्तं पारियावणिया किरिया। भावार्थ - प्रश्न - हे भगवन् ! पारितापनिकी क्रिया कितने प्रकार की कही गई है ? उत्तर - हे गौतम! पारितापंनिकी क्रिया तीन प्रकार की कही गई है, जैसे कि - जिस प्रकार से स्व के लिए, पर के लिए या स्व-पर दोनों के लिए असाता (दुःखरूप) वेदना उत्पन्न की जाती है, वह तीन प्रकार की पारितापनिकी क्रिया है। विवेचन - पारितापनिकी (परितावणिया) क्रिया - परिताप का अर्थ है कष्ट देना। परिताप में अथवा परिताप से होने वाली क्रिया पारितापनिकी क्रिया है । पारितापनिकी क्रिया भी स्व, पर और उभय के भेद से तीन प्रकार की है । जैसे - अपनी आत्मा को कष्ट देना, दूसरे को कष्ट देना तथा स्व और पर दोनों को कष्ट देना । । पाणाइवाय किरिया णं भंते! कइविहा पण्णत्ता? गोयमा! तिविहा पण्णत्ता।तं जहा-जेणं अप्पाणं वा परं वा तदुभयं वा जीवियाओ ववरोवेड, सेत्तं पाणाइवाय किरिया॥५८२॥ भावार्थ - प्रश्न - हे भगवन्! प्राणातिपात क्रिया कितने प्रकार की कही गई है? उत्तर - हे गौतम! प्राणातिपात क्रिया तीन प्रकार की कही गई है, वह इस प्रकार है - ऐसी क्रिया जिससे स्वयं को, दूसरे को, अथवा स्व-पर दोनों को जीवन से रहित कर दिया जाता है, वह त्रिविध प्राणातिपात क्रिया है। विवेचन - प्राणातिपातिकी क्रिया - इन्द्रिय आदि प्राण हैं उनका नाश करना अर्थात् प्राणों का घात करना प्राणातिपात है। प्राणातिपात से लगने वाली क्रिया प्राणातिपातिकी क्रिया है । अपने प्राणों का घात करना, दूसरे के प्राणों का घात करना तथा स्व और पर दोनों के प्राणों घात करना, इस तरह प्राणातिपातिकी क्रिया भी स्व, पर और तदुभय के भेद से तीन प्रकार की है। Jain Education International For Personal & Private Use Only www.jainelibrary.org
SR No.004096
Book TitlePragnapana Sutra Part 04
Original Sutra AuthorN/A
AuthorNemichand Banthiya, Parasmal Chandaliya
PublisherAkhil Bharatiya Sudharm Jain Sanskruti Rakshak Sangh
Publication Year2008
Total Pages358
LanguageHindi, Sanskrit
ClassificationBook_Devnagari & agam_pragyapana
File Size8 MB
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