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________________ २ काइया णं भंते! किरिया कइविहा पण्णत्ता ? गोयमा ! दुविहा पण्णत्ता । तंजहा - अणुवरयकाइया य दुप्पउत्तकाइया य। भावार्थ - प्रश्न - हे भगवन्! कायिकी क्रिया कितने प्रकार की कही गई है ? उत्तर - हे गौतम! कायिकी क्रिया दो प्रकार की कही गई है। वह इस प्रकार है - अनुपरतकायिकी और दुष्प्रयुक्तकायिकी । विवेचन - शरीर आदि प्रमत्त योगों के व्यापार से होने वाली हलन चलन आदि की क्रिया कायिकी क्रिया कहलाती है। इसके दो भेद हैं - १. अनुपरत कायिकी - विरति के अभाव में असंयमी जीव के शरीर आदि से होने वाली क्रिया और २ दुष्प्रयुक्त कायिकी - अयतना से शारीरिक आदि प्रवृत्ति से होने वाली क्रिया । य। प्रज्ञापना सूत्र अहिगरणियाणं भंते! किरिया कइविहा पण्णत्ता ? गोयमा ! दुविहा पण्णत्ता । तंजहा- संजोयणाहिगरणियां य णिव्वत्तणाहिगरणिया भावार्थ- प्रश्न हे भगवन् ! आधिकरणिकी क्रिया कितने प्रकार की कही गई है ? - उत्तर हे गौतम! आधिकरणिकी क्रिया दो प्रकार की कही गई है, वह इस प्रकार है संयोजनाधिकरणिकी और निर्वर्त्तनाधिकरणिकी। विवेचन - अधिकरणिकी ( अहिगरणिया) क्रिया- अनुष्ठान विशेष को अथवा बाह्य शस्त्रादि को अधिकरण कहते हैं। अधिकरण में अथवा अधिकरण से होने वाली क्रिया को आधिकरणिकी क्रिया कहते हैं। आधिकरणिकी क्रिया के दो भेद हैं-संयोजनाधिकरणिकी (संजोयणा) और निर्वर्तनाधिकरणिकी (निर्वर्तना)। पहले बने हुए शस्त्रादि के पृथक् पृथक् अंगों को जोड़ना संयोजनाधिकरणिकी क्रिया है । नये शस्त्रादि बनाना निर्वर्तनाधिकरणिकी क्रिया है । पांच प्रकार का शरीर बनाना भी आधिकरणिकी क्रिया है क्योंकि दुष्प्रयुक्त शरीर भी संसार वृद्धि का कारण है । पाओसिया णं भंते! किरिया कइविहा पण्णत्ता ? गोयमा ! तिविहा पण्णत्ता । तंजहा-जेणं अप्पणो वा परस्स वा तदुभयस्स वा असुभं मणं संपधारेइ, से त्तं पाओसिया किरिया । भावार्थ - प्रश्न - हे भगवन् ! प्राद्वेषिकी क्रिया कितने प्रकार की कही गई है ? उत्तर - हे गौतम! प्राद्वेषिकी क्रिया तीन प्रकार की कही गई है, वह इस प्रकार है - जिससे स्व का, पर का अथवा स्व- पर दोनों का मन अशुभ कर दिया जाता है वह प्राद्वेषिकी क्रिया है । " Jain Education International For Personal & Private Use Only www.jainelibrary.org
SR No.004096
Book TitlePragnapana Sutra Part 04
Original Sutra AuthorN/A
AuthorNemichand Banthiya, Parasmal Chandaliya
PublisherAkhil Bharatiya Sudharm Jain Sanskruti Rakshak Sangh
Publication Year2008
Total Pages358
LanguageHindi, Sanskrit
ClassificationBook_Devnagari & agam_pragyapana
File Size8 MB
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