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काइया णं भंते! किरिया कइविहा पण्णत्ता ?
गोयमा ! दुविहा पण्णत्ता । तंजहा - अणुवरयकाइया य दुप्पउत्तकाइया य। भावार्थ - प्रश्न - हे भगवन्! कायिकी क्रिया कितने प्रकार की कही गई है ?
उत्तर - हे गौतम! कायिकी क्रिया दो प्रकार की कही गई है। वह इस प्रकार है - अनुपरतकायिकी और दुष्प्रयुक्तकायिकी ।
विवेचन - शरीर आदि प्रमत्त योगों के व्यापार से होने वाली हलन चलन आदि की क्रिया कायिकी क्रिया कहलाती है। इसके दो भेद हैं - १. अनुपरत कायिकी - विरति के अभाव में असंयमी जीव के शरीर आदि से होने वाली क्रिया और २ दुष्प्रयुक्त कायिकी - अयतना से शारीरिक आदि प्रवृत्ति से होने वाली क्रिया ।
य।
प्रज्ञापना सूत्र
अहिगरणियाणं भंते! किरिया कइविहा पण्णत्ता ?
गोयमा ! दुविहा पण्णत्ता । तंजहा- संजोयणाहिगरणियां य णिव्वत्तणाहिगरणिया
भावार्थ- प्रश्न हे भगवन् ! आधिकरणिकी क्रिया कितने प्रकार की कही गई है ?
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उत्तर हे गौतम! आधिकरणिकी क्रिया दो प्रकार की कही गई है, वह इस प्रकार है संयोजनाधिकरणिकी और निर्वर्त्तनाधिकरणिकी।
विवेचन - अधिकरणिकी ( अहिगरणिया) क्रिया- अनुष्ठान विशेष को अथवा बाह्य शस्त्रादि को अधिकरण कहते हैं। अधिकरण में अथवा अधिकरण से होने वाली क्रिया को आधिकरणिकी क्रिया कहते हैं। आधिकरणिकी क्रिया के दो भेद हैं-संयोजनाधिकरणिकी (संजोयणा) और निर्वर्तनाधिकरणिकी (निर्वर्तना)। पहले बने हुए शस्त्रादि के पृथक् पृथक् अंगों को जोड़ना संयोजनाधिकरणिकी क्रिया है । नये शस्त्रादि बनाना निर्वर्तनाधिकरणिकी क्रिया है । पांच प्रकार का शरीर बनाना भी आधिकरणिकी क्रिया है क्योंकि दुष्प्रयुक्त शरीर भी संसार वृद्धि का कारण है ।
पाओसिया णं भंते! किरिया कइविहा पण्णत्ता ?
गोयमा ! तिविहा पण्णत्ता । तंजहा-जेणं अप्पणो वा परस्स वा तदुभयस्स वा असुभं मणं संपधारेइ, से त्तं पाओसिया किरिया ।
भावार्थ - प्रश्न - हे भगवन् ! प्राद्वेषिकी क्रिया कितने प्रकार की कही गई है ?
उत्तर - हे गौतम! प्राद्वेषिकी क्रिया तीन प्रकार की कही गई है, वह इस प्रकार है - जिससे स्व का, पर का अथवा स्व- पर दोनों का मन अशुभ कर दिया जाता है वह प्राद्वेषिकी क्रिया है ।
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