SearchBrowseAboutContactDonate
Page Preview
Page 17
Loading...
Download File
Download File
Page Text
________________ ४ प्रज्ञापना सूत्र जीवों की सक्रियता - अक्रियता जीवाणं भंते! किं सकिरिया अकिरिया ? गोयमा ! जीवा सकिरिया वि अकिरिया वि । सेकेणणं भंते! एवं वुच्चइ - ' जीवा सकिरिया वि अकिरिया वि?" गोयमा ! जीवा दुविहा पण्णत्ता। तंजहा- संसारसमावण्णगा य असंसारसमावण्णगा य। तत्थ णं जे ते असंसारसमावण्णगा ते णं सिद्धा, सिद्धा णं अकिरिया । तत्थ णं जे ते संसारसमावण्णगा ते दुविहा पण्णत्ता । तंजहा- सेलेसिपडिवण्णगा य असेलेसिपडिवण्णगा य । तत्थ णं जे ते सेलेसिपडिवण्णगा ते णं अकिरिया । तत्थ णं जे ते असेलेसिपडिवण्णगा ते णं सकिरिया, से तेणट्टेणं गोयमा ! एवं वुच्चइ - 'जीवा सकिरिया वि अकिरिया वि' ॥ ५८३ | कठिन शब्दार्थ - सकिरिया सक्रिय क्रियाओं से युक्त, अकिरिया - अक्रिय क्रियाओं से रहित, संसारसमावण्णगा - संसार समापन्नक-चतुर्गति भ्रमण रूप संसार को प्राप्त, असंसारसमावण्णगाअसंसारसमापन्नक-संसारपरिभ्रमण से मुक्त, सेलेसिपडिवण्णगा - शैलेशी प्रतिपन्नर्क-शैलेशी (अयोगी) अवस्था को प्राप्त, असेलेसिपडिवण्णगा अशैलेशी प्रतिपन्नक - शैलेशी अवस्था से रहित । भावार्थ - प्रश्न - हे भगवन्! जीव सक्रिय ( क्रिया - युक्त ) होते हैं, अथवा अक्रिय (क्रिया रहित) होते हैं ? उत्तर - हे गौतम! जीव सक्रिय भी होते हैं और अक्रिय भी होते हैं । प्रश्न - हे भगवन् ! किस कारण से ऐसा कहा जाता है कि जीव सक्रिय भी होते हैं और अक्रिय भी होते हैं ? Jain Education International उत्तर - हे गौतम! जीव दो प्रकार के कहे गए हैं, वह इस प्रकार है - संसारसमापन्नक और असंसारसमापन्नक। उनमें से जो असंसारसमापत्रक हैं, वे सिद्ध जीव हैं । सिद्ध अक्रिय होते हैं और उनमें से जो संसारसमापन्नक हैं, वे भी दो प्रकार के हैं- शैलेशीप्रतिपन्नक और अशैलेशीप्रतिपन्नक । उनमें से जो शैलेशी - प्रतिपन्नक होते हैं, वे अक्रिय हैं और जो अशैलेशी - प्रतिपन्नक होते हैं, वे सक्रिय होते हैं । हे गौतम! इसी कारण ऐसा कहा जाता है कि जीव सक्रिय भी हैं और अक्रिय भी हैं। विवेचन - सिद्ध जीव शरीर एवं मनोवृत्ति आदि से रहित होने के कारण अक्रिय क्रिया रहित होते हैं और शैलेशीप्रतिपन्नकों के सूक्ष्म व बादर मन, वचन और काया के योगों का निरोध हो जाने के For Personal & Private Use Only www.jalnelibrary.org
SR No.004096
Book TitlePragnapana Sutra Part 04
Original Sutra AuthorN/A
AuthorNemichand Banthiya, Parasmal Chandaliya
PublisherAkhil Bharatiya Sudharm Jain Sanskruti Rakshak Sangh
Publication Year2008
Total Pages358
LanguageHindi, Sanskrit
ClassificationBook_Devnagari & agam_pragyapana
File Size8 MB
Copyright © Jain Education International. All rights reserved. | Privacy Policy