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________________ पणवीसइमं कम्मबंधवेयपयं पच्चीसवां कर्म बंध वेद पद कणं भंते! कम्मपगडीओ पण्णत्ताओ ? गोयमा! अट्ठ कम्मपगडीओ पण्णत्ताओ। तंजहा - णाणावरणिजं जाव अंतराइयं । एवं रइयाणं जाव वेमाणियाणं । भावार्थ - प्रश्न - हे भगवन् ! कर्म प्रकृतियाँ कितनी कही गई हैं ? उत्तर - हे गौतम! कर्म प्रकृतियाँ आठ कही गई हैं। वे इस प्रकार हैं- ज्ञानावरणीय यावत् अन्तराय कर्म । इसी प्रकार नैरयिकों यावत् वैमानिकों तक के ये ही आठ कर्मप्रकृतियाँ कही गई हैं। विवेचन - प्रज्ञापना सूत्र के इस पच्चीसवें पद में यह बताया गया है कि ज्ञानावरणीय आदि कर्म बांधता हुआ जीव कितनी कर्म प्रकृतियाँ वेदता है । जीवे णं भंते! णाणावरणिज्जं कम्मं बंधमाणे कइ कम्मपगडीओ वेएइ ? गोयमा! णियमा अट्ठ कम्मपगडीओ वेएइ । एवं णेरइए जाव वेमाणिए, एवं पुहुत्त्रेण वि । एवं वेयणिज्जवज्जं जाव अंतराइयं । भावार्थ- प्रश्न - हे भगवन् ! ज्ञानावरणीय कर्म बांधता हुआ जीव कितनी कर्म प्रकृतियाँ वेदता है ? उत्तर - हे गौतम! ज्ञानावरणीय कर्म का बंध करता हुआ जीव नियम से आठ कर्म प्रकृतियों का वेदन करता है । इसी प्रकार एक नैरयिक से लेकर वैमानिक पर्यन्त तक समझना चाहिये। इसी प्रकार बहुवचन की अपेक्षा भी समझना चाहिये। वेदनीय कर्म को छोड़ कर शेष सभी (छह) कर्मों के विषय इसी प्रकार ज्ञानावरणीय कर्म के समान समझना चाहिये । विवेचन - जिस प्रकार ज्ञानावरणीय कर्म को बांधते हुए जीव आठों ही कर्म प्रकृतियाँ वेदता है। उसी प्रकार वेदनीय कर्म को छोड़ कर शेष सभी कर्मों- दर्शनावरणीय, नाम, गोत्र, आयुष्य, मोहनीय और अन्तराय का बंध करते हुए जीव नियम से आठों ही कर्म प्रकृतियों का वेदन करता है। जिस प्रकार एक जीव के लिये कहा है उसी प्रकार बहुत से जीवों के लिए भी समझना चाहिए। जीवे णं भंते! वेयणिजं कम्मं बंधमाणे कइ कम्मपगडीओ वेएइ ? • गोयमा ! अट्ठविहवेयए वा सत्तविहवेयर वा चडव्विहवेयए वा, एवं मणूसे वि । सेसा रइयाई एगत्तेणं पुहुत्तेणं विणियमा अट्ठकम्मपगडीओ वेदेंति जाव वेमाणिया । भावार्थ-प्रश्न - हे भगवन् ! वेदनीय कर्म को बांधता हुआ जीव कितनी कर्म प्रकृतियों को वेदता है ? Jain Education International For Personal & Private Use Only www.jainelibrary.org
SR No.004096
Book TitlePragnapana Sutra Part 04
Original Sutra AuthorN/A
AuthorNemichand Banthiya, Parasmal Chandaliya
PublisherAkhil Bharatiya Sudharm Jain Sanskruti Rakshak Sangh
Publication Year2008
Total Pages358
LanguageHindi, Sanskrit
ClassificationBook_Devnagari & agam_pragyapana
File Size8 MB
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