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चौबीसवां कर्मबंध पद
सेसा वाणमंतराइया जाव वेमाणिया जहा णेरड्या सत्तविहाइबंधगा भणिया तहा भाणियव्वा ।
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भावार्थ - प्रश्न हे भगवन् ! बहुत से मनुष्य ज्ञानावरणीय कर्म को बांधते हुए कितनी कर्म प्रकृतियों को बांधते हैं ?
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उत्तर - हे गौतम! १. सभी मनुष्य सात कर्म प्रकृतियों के बन्धक होते हैं २. अथवा बहुत से मनुष्य सात कर्म प्रकृतियों के बन्धक और कोई एक मनुष्य आठ कर्म प्रकृतियों का बन्धक होता है ३. अथवा बहुत से सात के तथा आठ कर्म प्रकृतियों के बंधक होते हैं ४. अथवा बहुत से मनुष्य सात
और कोई एक मनुष्य छह कर्म प्रकृतियों का बन्धक होता है ५. बहुत से मनुष्य सात के और बहुत से छह कर्म प्रकृतियों के बन्धक होते हैं ६. अथवा बहुत से मनुष्य सात के बन्धक, एक आठ का बंधक और कोई एक छह कर्म प्रकृतियों का बन्धक होता है ७. अथवा बहुत से सात के बन्धक, कोई एक आठ का बन्धक और बहुत से छह कर्म प्रकृतियों के बन्धक होते हैं ८. अथवा बहुत से सात के, बहुत से आठ के और एक छह कर्म प्रकृतियों का बन्धक होता है ९. अथवा बहुत से सात कर्म प्रकृतियों के बंधक बहुत से आठ कर्म प्रकृतियों के बंधक और बहुत से छह कर्म प्रकृतियों के बन्धक होते हैं। इस प्रकार ये नौ भंग होते हैं। शेष वाणव्यन्तर आदि से लेकर वैमानिक पर्यन्त जैसे नैरयिक सात आदि कर्म-प्रकृतियों के बन्धक कहे हैं, उसी प्रकार कह देने चाहिए।
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विवेचन बहुत से मनुष्य ज्ञानावरणीय कर्म को बांधते हुए कितनी कर्म प्रकृतियाँ बांधते हैं इसके नौ भंग इस प्रकार हैं - १. जब आठ कर्म के और छह कर्म के बंधक नहीं होते हैं तब सभी सात कर्म के बंधक होते हैं - यह प्रथम भंग। क्योंकि सात कर्म बांधने वाले सदैव बहुत होते हैं । २. एक आठ कर्म का बंधक हो तब सात कर्म के बांधने वाले बहुत और एक आठ कर्म का बंधक यह दूसरा भंग ३. जब बहुत से मनुष्य आठ कर्म बांधने वाले होते हैं तब बहुत से सात कर्म के और बहुत से आठ कर्म के बंधक होते हैं - यह तीसरा भंग। इस प्रकार जब आठ कर्म बांधने वाले नहीं हों तो ' षड्विधबन्धक' पद के एक वचन और बहुवचन की अपेक्षा दो भंग होते हैं। इस प्रकार द्विक संयोग में चार भंग, त्रिक संयोग में भी अष्टविधबन्धक और षड्विध बंधक पद के प्रत्येक के एक वचन और बहुवचन की अपेक्षा चार भंग होते हैं। इस प्रकार सभी मिल कर मनुष्य के ज्योतिषी और वैमानिकों में नैरयिक की तरह तीन-तीन भंग समझना लेना चाहिए।
भंग होते हैं । वाणव्यंतर,
एवं जहा णाणावरणं बंधमाणा जहिं भणिया दंसणावरणं पि बंधमाणा तहिं जीवाइया एगत्तपोहत्तएहिं भाणियव्वा ॥ ६३४ ॥
भावार्थ - जिस प्रकार ज्ञानावरणीय कर्म को बांधते हुए जिन कर्म-प्रकृतियों के बन्ध का कथन
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