SearchBrowseAboutContactDonate
Page Preview
Page 153
Loading...
Download File
Download File
Page Text
________________ १४० प्रज्ञापना सूत्र tleletetitutettatolaldatetbattraterialstetattatreetalaleletoindi outstaloto और जब बहुत से नैरयिक आठ कर्म के बंधक होते हैं तब तीसरा भंग होता है। ये ही तीन भंग दस भवनपति देवों में भी पाये जाते हैं। पुढविकाइया णं पुच्छा? गोयमा! सत्तविहबंधगा वि अविहबंधगा वि, एवं जाव वणस्सइकाइया। भावार्थ - प्रश्न - हे भगवन् ! बहुत पृथ्वीकायिक जीव ज्ञानावरणीय कर्म को बांधते हुए कितनी कर्म प्रकृतियों को बांधते हैं ? उत्तर - हे गौतम! बहुत पृथ्वीकायिक जीव ज्ञानावरणीय कर्म को बांधते हुए सात कर्म प्रकृतियों के भी बन्धक होते हैं और . आठ कर्म प्रकृतियों के भी बंधक होते हैं। इसी प्रकार यावत् वनस्पतिकायिक जीवों के विषय में भी कहना चाहिए। - विवेचन - पांच स्थावर जीवों में 'सात कर्म के बंधक और आठ कर्म के बंधक' यह एक ही भंग होता है क्योंकि उनमें आठ कर्म के बांधने वाले बहुत होते हैं तथा सदा शाश्वत मिलते हैं। विगलाणं पंचिंदियतिरिक्खजोणियाण य तियभंगो-सव्वे वि ताव होजा सत्तविहबंधगा १, अहवा सत्तविहबंधगा य अट्ठविहबंधए य २, अहवा सत्तविहबंधगा य अट्ठविहबंधगा य३। भावार्थ - विकलेन्द्रियों और तिर्यंच पंचेन्द्रिय जीवों के तीन भंग होते हैं - १. सभी सात कर्म प्रकृतियों के बन्धक होते हैं २. अथवा बहुत-से सात कर्म प्रकृतियों के बंधक और कोई एक जीव आठ कर्म प्रकृतियों का बन्धक होता है, ३. अथवा बहुत से सात कर्मप्रकृतियों के बन्धक तथा बहुत से आठ कर्म प्रकृतियों के बंधक होते हैं। विवेचन - बेइन्द्रिय, तेइन्द्रिय, चउरिन्द्रिय और तिर्यंच पंचेन्द्रिय जीवों में नैरयिक की तरह तीन भंग समझना चाहिये। ..मणूसा णं भंते! णाणावरणिजस्स पुच्छा? . गोयमा! सव्वे वि ताव होजा सत्तविहबंधगा १, अहवा सत्तविहबंधगा य अट्ठविहबंधए य २, अहवा सत्तविहबंधगा य अविहबंधगा य ३, अहवा सत्तविहबंधगा य छव्विहबंधए य ४,अहवा सत्तविहबंधगा य छविहबंधगा य ५, अहवा सत्तविहबंधगा य अट्ठविहबंधए य छव्विहबंधए य ६, अहवा सत्तविहबंधगा य अट्ठविहबंधए य छविहबंधगा य ७, अहवा सत्तविहबंधगा य अट्ठविहबंधगा य छविहबंधए य ८, अहवा सत्तविहबंधगा य अट्ठविहबंधगा य छव्विहबंधगा य ९, एवं एए णव भंगा। Jain Education International For Personal & Private Use Only www.jainelibrary.org
SR No.004096
Book TitlePragnapana Sutra Part 04
Original Sutra AuthorN/A
AuthorNemichand Banthiya, Parasmal Chandaliya
PublisherAkhil Bharatiya Sudharm Jain Sanskruti Rakshak Sangh
Publication Year2008
Total Pages358
LanguageHindi, Sanskrit
ClassificationBook_Devnagari & agam_pragyapana
File Size8 MB
Copyright © Jain Education International. All rights reserved. | Privacy Policy