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________________ १३० - कठिन शब्दार्थ - जहण्णठिईबंधए - जघन्यस्थिति बंधक, के कौन, उवसामए - उपशमक, खवगए - क्षपक, अण्णयरे अन्यतर (कोई एक ) । भावार्थ- प्रश्न हे भगवन् ! ज्ञानावरणीय कर्म की जघन्य स्थिति बांधने वाला कौन है ? - उत्तर - हे गौतम! ज्ञानावरणीय कर्म का जघन्य स्थिति बंधक अन्यतर (कोई. एक) उपशमक या क्षपक सूक्ष्म संपराय होता है। हे गौतम! यह ज्ञानावरणीय कर्म का जघन्य स्थिति बन्धक है। इसके अलावा अन्य अजघन्य स्थिति का बन्धक होता है। इस प्रकार इस अभिलाप से मोहनीय और आयुष्य कर्म को छोड़ कर शेष कर्मों के विषय में कहना चाहिए। विवेचन प्रस्तुत सूत्र में कर्मों के जघन्य स्थिति बन्धक की प्ररूपणा की गयी है। ज्ञानावरणीय आदि कर्मों का बन्ध सूक्ष्मसंपराय अवस्था में उपशमक और क्षपक दोनों का जघन्य अन्तर्मुहूर्त्त प्रमाण होता है। दोनों का स्थिति बन्ध का काल समान होने से कहा गया है कि उपशमक अथवा क्षपक दोनों में से कोई एक । क्षपक की अपेक्षा उपशमक का बन्ध काल दुगुना कहा है। इस संबंध में कर्म प्रकृति संग्रहणीकार कहते हैं प्रज्ञापना सूत्र - Jain Education International "खवगुसामग पडिवडमाण दुगुणो तहिं तहिं बन्धो" (कर्म प्रकृति उपशमना करण गाथा ६१ ) क्षपक की अपेक्षा उपशमक को और उससे उपशम श्रेणी से गिरने वाले को दुगुना दुगना बन्ध होता है। इसलिए वेदनीय कर्म के सांपरायिक ( कषायनिमित्तक) बन्ध की प्ररूपणा करते समय क्षपक का जघन्य स्थिति बन्ध १२ मुहूर्त का और उपशमक का २४ मुहूर्त्त का कहा है। नाम गोत्र का जघन्य बंध क्षपक को ८ मुहूर्त और उपशमक को १६ मुहूर्त्त का होता है परन्तु उपशमक का जघन्य बन्ध शेष बन्धकों की अपेक्षा सर्व जघन्य बन्ध समझना चाहिये । इसीलिए कहा गया है कि उपशमक एवं क्षपक जीव, जो सूक्ष्म संपय अवस्था में हो वही ज्ञानावरणीय आदि कर्मों का जघन्य स्थिति बन्धक है। • परन्तु आगम पाठ को देखते हुए यह कथन उचित नहीं लगता है। ज्ञानावरणीय आदि छह कर्मों (आयु और मोहनीय बिना) की जघन्य स्थिति के बंधक 'दशवें गुणस्थान के अन्तिम समय में' समझना चाहिये। उसके पहले मध्यम बन्ध ध्यान में आता है ऐसा कितनेक कहते हैं किन्तु आगम में तो 'तद्व्यतिरिक्त' शब्द से असूक्ष्म (बादर) सम्पराय वाले अजघन्य बंधक बताये हैं। यदि सूक्ष्म संपराय के चरम समय में ही जघन्य बंध होता तो आगमकार 'चरिम समए सुहुम संपराए' कह देते । परन्तु ऐसा नहीं कहा है। अतः आगम पाठ से तो पूरे दसवें गुणस्थान (सूक्ष्म सम्पराय वाले चाहे उपशम कहो या क्षपक) वाले जीवों के जघन्य स्थिति बंध होना ध्यान में आता है ॥ तत्त्व बहुश्रुत गम्यम् ॥ ज्ञानावरणीय आदि छह कर्मों के जो जघन्य स्थिति बंधक बताये हैं - वे स्थिति बंध की अपेक्षा से समझना चाहिये। सूक्ष्म सम्पराय अन्यतर ( उपशमक या क्षपक दोनों में से किसी) को ही सर्व जघन्य बन्धक तो आगम के मूल पाठ में कहे ही हैं। अनुभाग बंध से यदि टीकाकार की अपेक्षा भेद For Personal & Private Use Only www.jainelibrary.org
SR No.004096
Book TitlePragnapana Sutra Part 04
Original Sutra AuthorN/A
AuthorNemichand Banthiya, Parasmal Chandaliya
PublisherAkhil Bharatiya Sudharm Jain Sanskruti Rakshak Sangh
Publication Year2008
Total Pages358
LanguageHindi, Sanskrit
ClassificationBook_Devnagari & agam_pragyapana
File Size8 MB
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