SearchBrowseAboutContactDonate
Page Preview
Page 144
Loading...
Download File
Download File
Page Text
________________ तेईसवाँ कम प्रकृति पद द्वितीय उद्देशक कर्मों की मूल एवं उत्तर प्रकृतियाँ - करे तो बात निराली । अर्थात् असंख्यात अनुभाग बंध के अध्यवसायों में एक ही प्रकार का स्थिति बंध हो सकता है। स्थिति बंध की अपेक्षा से तो टीकाकार का कथन उचित प्रतीत नहीं होता है ॥ मोहणिजस्स णं भंते! कम्मस्स जहण्णठिईबंधए के ? गोयमा ! अण्णयरे बायरसंपराए उवसामए वा खवए वा, एस णं गोयमा ! मोहणिज्जस्स कम्मस्स जइण्णठिईबंधए, तव्वइरित्ते अजहण्णे । - भावार्थ- प्रश्न हे भगवन्! मोहनीय कर्म की जघन्य स्थिति का बन्धक कौन है ? उत्तर हे गौतम! मोहनीय कर्म की जघन्य स्थिति का बंधक अन्यतर (कोई एक ) बादर सम्पराय, उपशमक अथवा क्षपक होता है। हे गौतम! यह मोहनीय कर्म का जघन्य स्थिति बन्धक है, इसके अलावा अन्य अजघन्य स्थिति का बन्धक होता है। विवेचन - बादर सम्पराय से युक्त उपशमक या क्षपक जीव मोहनीय कर्म की स्थिति का बंध होता है। मोहनीय कर्म की जघन्य स्थिति के बन्धक 'बादर सम्पराय वाले क्षपक या उपशामक जीव' बताये हैं। ‘बादर सम्पराय वाले यद्यपि छुट्टे गुणस्थान से नववें गुणस्थान तक के जीव' होते हैं। परन्तु यहाँ पर 'नवमें गुणस्थान वाले' ही लेना चाहिए क्योंकि खास उपशम या क्षपक तो वहीं पर होता है। नवमें गुणस्थान के भी पांच भागों में से पांचवें भाग के अन्तिम समय में बन्धने वाली अन्तर्मुहूर्त की स्थिति के बंधक क्षपक या उपशामक जीव को ही समझना चाहिये । आउयस्स णं भंते! कम्मस्स जहण्णठिईबंधए के ? गोयमा ! जेणं जीवे असंखेप्पद्धापविट्टे, सव्वणिरुद्धे से आउए, सेसे सव्वमहंतीए आउयबंधद्धाए तीसे णं आउयबंधद्धाए चरिमकालसमयंसि सव्वजहण्णियं ठिइ पज्जत्तापज्जत्तियं णिव्वत्ते, एस णं गोयमा! आउयकम्मस्स जहण्णठिईबंधए, तव्वइरित्ते अजहण्णे ॥ ६३२ ॥ कठिन शब्दार्थ असंखेप्पद्धा पविट्टे असंक्षेप्याद्धा प्रविष्ट - जिसका संक्षेप नहीं किया जा सके इतना मात्र आयुष्य काल बाकी है, ऐसे काल में प्रवेश किया हुआ, सव्यणिरुद्धे - सर्व निरुद्ध-उपक्रम के हेतुओं से अतिसंक्षिप्त किया हुआ, सव्वमहंतीए - सबसे बड़े, चरिमकाल समर्पसि -चरम काल समय में, पज्जतापज्जत्तियं पर्याप्तापर्याप्तिकां पर्याप्तक और अपर्याप्तक रूप। - Jain Education International १३१ - भावार्थ- प्रश्न - हे भगवन्! आयुष्य कर्म का जघन्य स्थिति बन्धक कौन है ? उत्तर - हे गौतम! जो जीव असंक्षेप्य अद्धाप्रविष्ट (जिसके आयुष्य बंध का काल संक्षेप नहीं किया जा सके ऐसे जीव) हैं, उसका सर्वनिरुद्ध-सबसे कम आयुष्य है, जो सबसे बड़े आयुष्य बन्ध काल का एक भाग रूप है, ऐसे उस आयुष्य बंध के चरम काल-अंतिम समय में वर्तते पर्याप्तक और For Personal & Private Use Only www.jalnelibrary.org
SR No.004096
Book TitlePragnapana Sutra Part 04
Original Sutra AuthorN/A
AuthorNemichand Banthiya, Parasmal Chandaliya
PublisherAkhil Bharatiya Sudharm Jain Sanskruti Rakshak Sangh
Publication Year2008
Total Pages358
LanguageHindi, Sanskrit
ClassificationBook_Devnagari & agam_pragyapana
File Size8 MB
Copyright © Jain Education International. All rights reserved. | Privacy Policy