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________________ तेईसवाँ कर्म प्रकृति पद द्वितीय उद्देशक कर्मों की मूल एवं उत्तर प्रकृतियाँ पुरिसवेयणिज्जस्स जहणेणं अट्ठ संवच्छराई, उक्कोसेणं दस सागरोवमकोडाकोडीओ । दस य वाससयाइं अबाहा । जसोकित्तिणामाए उच्चागोयस्स एवं चेव, णवरं जहण्णेणं अट्ठ मुहुत्ता। अंतराइयस्स जहा णाणावरणिज्जस्स । सेसएसु सव्वेस ठाणेसु संघयणेसु संठाणेसु वण्णेसु गंधेसु य जहण्णेणं अंतोसागरोवमकोडाकोडीओ, उक्कोसेणं जा जस्स ओहिया ठिई भणिया तं बंधंति, णवरं इमं णाणत्तं - अबाहा अबाहूणिया ण वुच्चइ । एवं आणुपुव्वीए सव्वेसिं जाव अंतराइयस्स ताव भाणियव्वं ॥ ६३१ ॥ भावार्थ- पुरुष वेद की जघन्य आठ वर्ष की और उत्कृष्ट दस कोडाकोडी सागरोपम की स्थिति है। अबाधाकाल दस सौ (एक हजार) वर्ष का है । यशः कीर्तिनाम नाम और उच्चगोत्र की स्थिति भी इसी प्रकार समझनी चाहिये। विशेषता यह है कि जघन्य स्थिति आठ मुहूर्त्त की है । अन्तराय कर्म की स्थिति ज्ञानावरणीय कर्म के समान समझनी चाहिये । १२९ शेष सभी स्थानों में संहनन, संस्थान, वर्ण और गन्ध नाम कर्मों की स्थिति जघन्य अन्तः कोडाकोडी सागरोपम की और उत्कृष्ट जिस प्रकृति की जो सामान्य स्थिति कही है उतनी स्थिति का बंध करते हैं परन्तु इतनी विशेषता है कि अबाधाकाल और अबाधा काल कम कर्म निषेक काल नहीं कहना चाहिए। इस प्रकार सभी कर्म प्रकृतियों की स्थिति अनुक्रम से यावत् अंतराय कर्म तक कह देनी चाहिए। विवेचन - प्रस्तुत सूत्र में संज्ञी पंचेन्द्रिय जीवों में कर्म प्रकृतियों के स्थिति बंध का निरूपण किया गया है। प्रस्तुत सूत्र में ज्ञानावरणीय आदि कर्मों का जो जघन्य स्थिति बन्ध अन्तर्मुहूर्त आदि कहा गया है वह क्षपक जीव को उन प्रकृतियों के बंध के चरम समय में होता है। पांच निद्रा, असाता वेदनीय, मिथ्यात्व और बारह कषायों आदि का बन्ध क्षपण से पहले होता है इसलिए उनका जघन्य और उत्कृष्ट बन्ध अन्त: कोडाकोडी सागरोपम का होता है । उत्कृष्ट बंध अत्यन्त संक्लेश वाले मिथ्यादृष्टि के होता है परन्तु तिर्यंचायुष, मनुष्यायुष और देवायुष्य का उत्कृष्ट बंध अपने अपने बंधकों में अतिविशुद्ध को होता है। णाणावरणिज्जस्स णं भंते! कम्मस्स जहण्णठिईबंधए के ? गोयमा ! अण्णयरे सुहमसंपराए उवसामए वा खवगए वा, एस णं गोयमा ! णाणावरणिज्जस्स कम्मस्स जहण्णठिईबंधए, तव्वइरित्ते अजहणणे, एवं एएणं अभिलावेणं मोहाउयवज्जाणं सेसकम्माणं भाणियव्वं । Jain Education International For Personal & Private Use Only www.jalnelibrary.org
SR No.004096
Book TitlePragnapana Sutra Part 04
Original Sutra AuthorN/A
AuthorNemichand Banthiya, Parasmal Chandaliya
PublisherAkhil Bharatiya Sudharm Jain Sanskruti Rakshak Sangh
Publication Year2008
Total Pages358
LanguageHindi, Sanskrit
ClassificationBook_Devnagari & agam_pragyapana
File Size8 MB
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