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________________ पन्द्रहवां इन्द्रिय पद-प्रथम उद्देशक - अनगार द्वार ४७ उत्तर - हे गौतम! यह अर्थ समर्थ नहीं है। अर्थात् नहीं देखता है। से केणद्वेणं भंते! एवं वुच्चइ-"छउमत्थे णं मणुस्से तेसिं णिजरा पोग्गलाणं णो किंचि आणत्तं वा णाणत्तं वा ओमत्तं वा तुच्छत्तं वा गरुयत्तं वा लहुयत्तं वा जाणइ पासइ?" गोयमा! देवे वि य णं अत्थेगइए जे णं तेसिं णिजरा पोग्गलाणं णो किंचि आणत्तं वा णाणत्तं वा ओमत्तं वा तुच्छत्तं वा गरुयत्तं वा लहुयत्तं वा जाणइ पासइ, से तेणद्वेणं गोयमा! एवं वुच्चइ-छउमत्थे णं मणुस्से तेसिं णिजरा पोग्गलाणं णो किंचि आणत्तं वा जाव जाणइ पासइ, एवं सुहुमा णं ते पोग्गला पण्णत्ता समणाउसो!, सव्वलोगं वि य णं ते ओगाहित्ता णं चिटुंति॥४३९॥ भावार्थ - प्रश्न - हे भगवन् ! किस कारण से आप ऐसा कहते हैं कि छद्मस्थ मनुष्य उन भावितात्मा अनगार के चरमनिर्जरा पुद्गलों के अन्यत्व, नानात्व, हीनत्व, तुच्छत्व, गुरुत्व अथवा लघुत्व को नहीं जानता देखता है? उत्तर - हे गौतम! मनुष्य तो क्या कोई-कोई विशिष्ट देव भी उन निर्जरा पुद्गलों के अन्यत्व, नानात्व, हीनत्व, तुच्छत्व, गुरुत्व या लघुत्व को किंचित् भी नहीं जानता-देखता है। हे गौतम! इस कारण से ऐसा कहा जाता है कि छद्मस्थ मनुष्य उन निर्जरा पुद्गलों के अन्यत्व, नानात्व, हीनत्व, तुच्छत्व, गुरुत्व या लघुत्व को नहीं जानता है और न ही देख पाता है, क्योंकि हे आयुष्मन् श्रमण! वे चरम निर्जरा पुद्गल सूक्ष्म हैं। वे सम्पूर्ण लोक को अवगाहन करके रहते हैं। विवेचन - प्रस्तुत सूत्र में छद्मस्थ मनुष्य द्वारा चरम निर्जरा पुद्गलों को जानने देखने की असमर्थता प्रकट की गई है। छद्मस्थ मनुष्य (विशिष्ट अवधिज्ञान एवं केवलज्ञान से रहित) चरम निर्जरा पुद्गलों के अन्यत्व अर्थात् ये निर्जरा पुद्गल अमुक श्रमण के हैं, ये अमुक श्रमण के हैं इस प्रकार के भिन्नत्व को तथा नानात्व-एक पुद्गल गत वर्णादि के नाना भेदों को तथा उनके हीनत्व तुच्छत्व (निःसारत्व) गुरुत्व (भारीपन) एवं लघुत्व (हल्केपन) को जान नहीं सकता है देख नहीं सकता है। इसके मुख्य दो कारण बताये गये हैं - १. वे पुद्गल इतने सूक्ष्म हैं कि चक्षु आदि इन्द्रियों के विषय से रहित एवं अतीत हैं। २. वे अत्यंत सूक्ष्म परमाणु रूप पुद्गल सम्पूर्ण लोक में अवगाहन करके रहे हुए हैं, वे बादर रूप नहीं हैं, इसलिए इन्द्रियाँ उन्हें ग्रहण नहीं कर सकती है। मनुष्यों की अपेक्षा देवों की इन्द्रियाँ विषय ग्रहण करने में अधिक पटु (चतुर) होती है किन्तु अवधिज्ञान से रहित देव भी जब उन भावितात्मा अनगारों Jain Education International For Personal & Private Use Only www.jainelibrary.org
SR No.004095
Book TitlePragnapana Sutra Part 03
Original Sutra AuthorN/A
AuthorNemichand Banthiya, Parasmal Chandaliya
PublisherAkhil Bharatiya Sudharm Jain Sanskruti Rakshak Sangh
Publication Year2008
Total Pages412
LanguageHindi, Sanskrit
ClassificationBook_Devnagari & agam_pragyapana
File Size9 MB
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