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पन्द्रहवां इन्द्रिय पद-प्रथम उद्देशक - चौबीस दण्डकों में संस्थान आदि की प्ररूपणा
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मृदु लघु गुण अनन्त गुणा हैं। कर्कश गुरु गुणों से मृदु लघु गुणों में से सबसे कम चक्षुरिन्द्रिय के कर्कश गुरु गुण हैं, उनसे श्रोत्रेन्द्रिय के कर्कश गुरु गुण अनन्त गुणा हैं, उनसे घ्राणेन्द्रिय के कर्कश गुरु गुण अनन्त गुणा हैं, उनसे जिह्वेन्द्रिय के कर्कश गुरु गुण अनन्त गुणा हैं, उनसे स्पर्शनेन्द्रिय के कर्कश गुरु गुण अनन्त गुणा हैं। स्पर्शनेन्द्रिय के कर्कश गुरु गुणों से उसी के मृदु लघु गुण अनन्त गुणा हैं, उनसे जिह्वेन्द्रिय के मृदु लघु गुण अनन्त गुणा हैं, उनसे घ्राणेन्द्रिय के मृदु लघु गुण अनन्त गुणा हैं, उनसे श्रोत्रेन्द्रिय के मृदु लघु-गुण अनन्त गुणा हैं और उनसे भी चक्षुरिन्द्रिय के मृदु लघु गुण अनन्त गुणा हैं।
विवेचन - प्रस्तुत सूत्र में इन्द्रियों के कर्कश गुरु और मृदु लघु गुणों का अल्पबहुत्व कहा गया है। चक्षुइन्द्रिय, श्रोत्रेन्द्रिय, घाणेन्द्रिय, जिह्वेन्द्रिय और स्पर्शनेन्द्रिय अनुक्रम से कर्कश गुरु गुण में अनन्त अनन्त गुणा अधिक है। इन्हीं इन्द्रियों के मृदु लघु गुण पश्चानुपूर्वी से अनन्त अनन्त गुणा अधिक हैं। क्योंकि वे उत्तरोत्तर कर्कश रूप और पूर्व पूर्व अति कोमल रूप होती है। कर्कश गुरु गुणों और मृदु लघु गुणों की शामिल अल्पबहुत्व में स्पर्शनेन्द्रिय के कर्कश गुरु गुणों से उसी के मृदु लघु गुण अनन्त गुणा है क्योंकि शरीर के ऊपर रहे हुए कितने ही प्रदेश शीत उष्ण आदि के संपर्क से कर्कश होते हैं। इसके सिवाय अंदर रहे हुए अन्य बहुत से प्रदेश मृदु ही होते हैं अतः स्पर्शनेन्द्रिय के कर्कश गुरु गुण की . अपेक्षा मृदु लघु गुण अनन्त गुणा अधिक है।
चौबीस दण्डकों में संस्थान आदि की प्ररूपणा णेरइयाणं भंते! कइ इंदिया पण्णत्ता? गोयमा! पंच इंदिया पण्णत्ता, तंजहा - सोइंदिए जाव फासिदिए। भावार्थ - प्रश्न - हे भगवन् ! नैरयिकों के कितनी इन्द्रियाँ कही गई है?
उत्तर - हे गौतम! नैरयिकों के पांच इन्द्रियाँ कही गई हैं, वे इस प्रकार हैं - श्रोत्रेन्द्रिय से लेकर स्पर्शनेन्द्रिय तक।
णेरइयाणं भंते! सोइंदिए किं संठिए पण्णत्ते?
गोयमा! कलंबुया संठाणसंठिए पण्णत्ते। एवं जहेव ओहियाणं वत्तव्वया भणिया । तहेव णेरइयाणं वि जाव अप्याबहुयाणि दोण्णि वि। णवरं णेरइयाणं भंते! फासिदिए किं संठिए पण्णत्ते? - गोयमा! दुविहे पण्णत्ते। तंजहा - भवधारणिजे य उत्तरवेउव्विए य। तत्थ णं जे से भवधारणिजे से णं हुंड संठाणसंठिए पण्णत्ते, तत्थ णं जे से उत्तरवेउव्विए से वि तहेव, सेसंतं चेव॥ ४३३॥
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